Shab e baraart ki haqeeqat (Part:2)/शब ए बरात की हक़ीक़त भाग:2
Shab e baraat ki haqeeqat |
Shab e baraart ki haqeeqat से मुतल्लिक Part:1 में आप सभी ने ईमाम तिरमिज़ी की हदीस पढ़ी की शअ़बान की रात में, अल्लाह तआ़ला बनू क्लब की भेड़ों के बालों से भी अधिक लोगों को मआ़फ़ कर देता है।यहां तक सभी लोग तिर्मिज़ी की रिवायत बयान करते हैं, लेकिन इसके बाद इमाम तिर्मिज़ी ने जो फ़ैसला सुनाया, उसे "शीर मादर" समझ कर हज़म कर जाते हैं
''इमाम साहब कहते हैं कि मैंने मुहम्मद बिन इस्माइल (इमाम बुखारी) से सुना है कि वह इस हदीस को कमज़ोर कहते थे, कि यह दो स्थानों से मुनक़तआ़ है, और यह मुनक़तआ़ रवायत मुहद्दिसीन के नजदीक ना का़बिले कबूल, अस्वीकार्य है
इसीलिए बदरुद्दीन हनफ़ी और इब्न अल-अरबी मलिकी ने इसे मौजूअ़ कहा है।इसीलिए हलवा-खोर मौलवी इमाम साहब की पूरी बात नहीं बताता, नहीं तो उसकी कहानी की पूरी इमारत ढह जाएगी।
एक बात और, यदि इस रवायत को सही मान लिया जाए तो सूरह दुखा़न के बारे में उनकी यह बात झूठी साबित हो जाती है कि जो क़ुरआन कई साल पहले मक्का में नाजिल हुआ था, अगर उसका संबंध शब-ए-बारात से होता तो क्या सैयदह आयशा सिद्दीका को इसके बारे में इ़ल्म नहीं था ?
लेकिन अगर वे अब भी अपनी बात पर अड़े हैं तो यह मआ़ज़ अल्लाह, अल्लाह के रसूल और उनकी ज़ौजा पर इल्ज़ाम है की सैय्यदा आयशा सिद्दीका क़ुरआन से इतनी ना इल्म थीं कि इतने साल पहले इसी रात की फ़जी़लत में क़ुरआन नाजि़ल हुआ था, लेकिन उन्हें कोई इल्म ही नहीं था।
और मआ़ज़ अल्लाह पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर इल्ज़ाम आता है कि वह अपने परिवार के सदस्यों तक को भी कुरान नहीं समझा सके।यह है तबर्रे का तरीक़ा। लेकिन हमारे भोले भाले सुन्नी भाई नहीं समझते.इसीलिए इसका नाम शब ए बरात (तबर्रा की रात) रखा गया है।
आधे शाबान की रात के बारे में तिर्मिज़ी और इब्ने माजा की हदीस की हैसियत तो आपके सामने स्पष्ट हो गई है।
इसीलिए बदरुद्दीन हनफ़ी और इब्न अल-अरबी मलिकी ने इसे मौजूअ़ कहा है।इसीलिए हलवा-खोर मौलवी इमाम साहब की पूरी बात नहीं बताता, नहीं तो उसकी कहानी की पूरी इमारत ढह जाएगी।
एक बात और, यदि इस रवायत को सही मान लिया जाए तो सूरह दुखा़न के बारे में उनकी यह बात झूठी साबित हो जाती है कि जो क़ुरआन कई साल पहले मक्का में नाजिल हुआ था, अगर उसका संबंध शब-ए-बारात से होता तो क्या सैयदह आयशा सिद्दीका को इसके बारे में इ़ल्म नहीं था ?
लेकिन अगर वे अब भी अपनी बात पर अड़े हैं तो यह मआ़ज़ अल्लाह, अल्लाह के रसूल और उनकी ज़ौजा पर इल्ज़ाम है की सैय्यदा आयशा सिद्दीका क़ुरआन से इतनी ना इल्म थीं कि इतने साल पहले इसी रात की फ़जी़लत में क़ुरआन नाजि़ल हुआ था, लेकिन उन्हें कोई इल्म ही नहीं था।
और मआ़ज़ अल्लाह पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर इल्ज़ाम आता है कि वह अपने परिवार के सदस्यों तक को भी कुरान नहीं समझा सके।यह है तबर्रे का तरीक़ा। लेकिन हमारे भोले भाले सुन्नी भाई नहीं समझते.इसीलिए इसका नाम शब ए बरात (तबर्रा की रात) रखा गया है।
आधे शाबान की रात के बारे में तिर्मिज़ी और इब्ने माजा की हदीस की हैसियत तो आपके सामने स्पष्ट हो गई है।
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इस रात से मुतल्लिक एक सही रिवायत का जायज़ा
लेकिन इसके मिलती जुलती, सुन्नन नसाई, मोता इमाम मलिक और अन्य पुस्तकों में सही हदीस मौजूद है के "पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) एक रात उठे, अपने कपड़े पहने और बाहर चले गए। अपनी वापसी पर, उन्होंने कहा, 'मुझे अहले बाक़ी की तरफ भेजा गया था ताकि मैं उनके लिए दुआ ए मगफिरत करूं!Shab e baraat ki haqeeqat |
और यह आदेश कुरान के मुताबिक है."और उनके लिए रहमत की दुआ करो, बेशक तुम्हारी दुआ उनके लिए अमन का जरिया है।"(सूरत अल-बारात)
मुता ईमाम मालिक पेज 85 में इब्न अल-वदाह का कहना है कि यह घटना पैगंबर की मृत्यु के पांच दिन बाद हुई थी। यदि आपकी मृत्यु रबी अल-अव्वल में हुई, तो आधे शअ़बान का इससे कोई लेना-देना नहीं है।और इसमें शाबान और बनुकलब की भेड़ों के बालों का कोई ज़िक्र नहीं है।
इससे जुड़ी एक रवायत का श्रेय सैय्यदना अबू बक्र सिद्दीक (राज़ी) को भी दिया जाता है।" आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा, "शअ़बान के मध्य की रात में, अल्लाह दुनिया में उतरता है और मुश्रिक और बुग़ज़ रखने वालों को छोड़कर सभी को मआ़फ़ कर देता है।"
यह हदीस किताब सित्ता में बिल्कुल नहीं मिलती है, लेकिन इमाम इब्ने उदी ने इसे "कामिल" में नक़ल किया है और इसे मुनकर क़रार दिया है।
क्योंकि इस रवायत का सिरा कासिम बिन मुहम्मद से जा कर मिलता है कि उन्होंने इसे अपने पिता मुहम्मद बिन अबू बक्र से सुना था।
क़ासिम,(अल्लाह उन पर रहम करे), एक आलिम, फ़क़ही और परहेज़गार इंसान थे जो 36 हिजरी में पैदा हुए। और उनके पिता की मृत्यु 37 हिजरी में हुई।
क्या एक साल की उम्र में अपने पिता से सुनने के बआ़द उन्हें यह परंपरा याद आई?
और जहाँ तक मुहम्मद बिन अबू बक्र का सवाल है, सहीह मुस्लिम, अबू दाऊद और इब्न माजा में, सैय्यदना जाबिर बिन अब्दुल्लाह ने कहा है कि 10 हिजरी 4 ज़िलहिज्जा को हज यात्रा के दौरान, अबू बक्र की पत्नी अस्मा बिन्त उमैस ने जन्म दिया था। मुहम्मद नाम के एक लड़के को।
सय्यिदुना अबू बक्र सिद्दीक (रजी़ः ़) का निधन 22 जुमादी अल-थानी 13 हिजरी को हुआ।
उस समय मुहम्मद की उम्र 2 वर्ष 6 माह और 18 दिन थी।
इस उम्र में हदीसों को सुनना और याद रखना खिलाफ़ ए अ़क़ल है।
इससे जुड़ी एक रवायत का श्रेय सैय्यदना अबू बक्र सिद्दीक (राज़ी) को भी दिया जाता है।" आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा, "शअ़बान के मध्य की रात में, अल्लाह दुनिया में उतरता है और मुश्रिक और बुग़ज़ रखने वालों को छोड़कर सभी को मआ़फ़ कर देता है।"
यह हदीस किताब सित्ता में बिल्कुल नहीं मिलती है, लेकिन इमाम इब्ने उदी ने इसे "कामिल" में नक़ल किया है और इसे मुनकर क़रार दिया है।
क्योंकि इस रवायत का सिरा कासिम बिन मुहम्मद से जा कर मिलता है कि उन्होंने इसे अपने पिता मुहम्मद बिन अबू बक्र से सुना था।
क़ासिम,(अल्लाह उन पर रहम करे), एक आलिम, फ़क़ही और परहेज़गार इंसान थे जो 36 हिजरी में पैदा हुए। और उनके पिता की मृत्यु 37 हिजरी में हुई।
क्या एक साल की उम्र में अपने पिता से सुनने के बआ़द उन्हें यह परंपरा याद आई?
और जहाँ तक मुहम्मद बिन अबू बक्र का सवाल है, सहीह मुस्लिम, अबू दाऊद और इब्न माजा में, सैय्यदना जाबिर बिन अब्दुल्लाह ने कहा है कि 10 हिजरी 4 ज़िलहिज्जा को हज यात्रा के दौरान, अबू बक्र की पत्नी अस्मा बिन्त उमैस ने जन्म दिया था। मुहम्मद नाम के एक लड़के को।
सय्यिदुना अबू बक्र सिद्दीक (रजी़ः ़) का निधन 22 जुमादी अल-थानी 13 हिजरी को हुआ।
उस समय मुहम्मद की उम्र 2 वर्ष 6 माह और 18 दिन थी।
इस उम्र में हदीसों को सुनना और याद रखना खिलाफ़ ए अ़क़ल है।
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और यह मुहम्मद बिन अबू बक्र भी कौन है?
ये वह है जो उ़स्मान के हत्यारों में से था, जिसने सैय्यिदुना उ़स्मान की दाढ़ी पर हाथ डाला था।ऐसी इतिहास के बदनाम हस्ती की रवायत को कैसे स्वीकार किया जा सकता है?इस संबंध में एक और रवायत प्रचलित है। उनके शब्द हैं."रजब अल्लाह का महीना है, शाबान मेरा महीना है और रमज़ान मेरी उम्मत का महीना है।"
इसकी पूरी सनद में कोई रावी ऐसा नहीं के जिसका आलम ए दुनिया में वजूद हो
इब्न जुज़ी, इब्न क़य्यिम, सुयुती, सखावी, इब्न इराक अल-कनानी, हाफ़िज़ इराकी, मकदिसी, जाज़ारी और ताहिर पाटनी लिखते हैं की इस तरह की जितनी रवायत है सब मनघड़त हैं।
शियाओं की मोअतबर किताब "तोहफ़ा अल-अवाम" में इस रात की बड़ी फजीलत का जिक्र है
"इस रात को अल्लाह की ओर से बुलावा आता है कि कोई माआ़फ़ी मांगने वाला की उसे मआ़फ़ कर दूं, कोई है जो रिज़्क मांग रहा है कि मैं उसकी रिज़्क बढ़ा दूं।"
और ये भी है इस रात इमाम हुसैन से मिलने जाना भी शामिल है, इस रात पैगंबर और फ़रिश्ते अल्लाह से रुख़सत लेकर हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़यारत के लिए आते हैं।"
दूसरे शब्दों में, इस रात की पवित्रता पर विचार करें कि सभी पैगंबर और फ़रिश्ते कर्बला जाते हैं और इससे भी अधिक बुरी बात यह है कि नवासा नाना की ज़यारत को खुद नहीं जाता है, बल्कि नाना यानी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को खुद ही कर्बला जाना पड़ता है.
दरअसल, इसका मकसद यह है की कर्बला की रोज़ा ए रसूल से और सैय्यदुना हुसैन की नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर फ़जी़लत साबित की जाए
इस तरह उन्होंने इस इबादत की आड़ में तबर्रा यानी बारात से काम लिया है अब शायद आप समझ गए होंगे की Shab e baraart ki haqeeqat और मतलबक्या है!
शब-ए-बारात की फजीलत के बारे में और भी कई रवायतें फैलाई गई हैं और उन सभी का हश्र वही है जो पहले बताया गया है यानी मनघड़त हैं
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Khurafaat aur bid'aat ki shuruwat aur manghadat Riwayat
अलगर्ज प्रामाणिक इतिहास से मालूम होता है कि 322 हिजरी में बानूबिया रफ़ीज़ी ने बग़दाद पर कब्ज़ा कर लिया और उसके बाद ही रीति-रिवाजों और परंपराओं का सिलसिला शुरू हुआ।उनमें से ही एक शासक "मुअज़दुल्लाह" ने 336 में मुहर्रम के दसवें महीने में शोक मनाना शुरू कर दिया।
351 हिजरी में मस्जिदों के दरवाज़ों और मेहराबों पर तीन ख़लीफ़ाओं और अमीर मुआ़विया पर लानतें लिखवाई। सुन्नियों ने इस पर बहुत आपत्ति, ऐतराज की, इसलिए यह निर्णय लिया गया कि चार ख़लीफ़ा माने जाएँ, वरना इससे पहले केवल तीन ही ख़ुलफ़ा ए रशीदीन माने जाते थे।
इस मुअज़दुल्लाह ने ही खुतबात में से अशरा मुबाशरा, अमीर मुआविया और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की 3 बेटियों के नाम हटा दिए और पवित्र पत्नियों का उल्लेख हटाकर हज़रत हसनैन का उल्लेख जोड़ दिया। और आज भी हमारी अधिकांश मस्जिदों के इमाम इसी मुअज़दुल्लाह के उपदेशों पर अमल करते हैं।
लब्बोलुआब यह है कि ऐसी सभी रवायतें अविश्वसनीय , नाकाबिल ए ऐतबार हैं और हदीस की किसी भी मुस्तनद और सहिह किताब में मौजूद नहीं हैं।बल्कि यह शियाओं का एक रस्म,अनुष्ठान है जो सूफियों के माध्यम से सुन्नियों तक फैल गया।
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इसीलिए इसे भारत और पाकिस्तान, इराक, ईरान और जहां भी शिया धर्म का प्रभाव है, वहां मनाया जाता है।भारत में मुगल परिवार के अधिकांश सदस्य शिया या शियत के प्रभाव में थे।
लखनऊ, रामपुर तथा अवध राज्यों पर शियाओं का कब्ज़ा रहा
यही कारण था कि शियाओं को अपने धर्म का प्रचार करने का अच्छा अवसर मिल गया और सुन्नी विद्वानों की जुबान पर ताला डाल दिया गया और आज भी हमारे मुल्क में यही हश्र है.
अब कुछ लोग कहते हैं कि देखें यह हमे इबादत करने हम से मना करते हैं।
हम इबादत से मना नहीं करते, बल्कि एक ख़ास दिन और रात को खुद मुकर्रर करना और उसके फ़जा़ईल बना लेना यह दीन में बिदअ़त है, और "हर बिदअ़त गुमराही है और हर गुमराही का ठिकाना नरक की आग है।"
हर रात में दुआ़ की कबूलियत का वक्त
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया की:
अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला, हर रात जब तीसरी रात बाकी होती है, तो आकाश दुनिया की ओर उतरता है और कहता है: कोई है जो मुझसे दुआ मांगे, मैं उसकी दुआ कबूल करूंगा, है कोई जो मुझसे सवाल करे मैं उसको दूंगा, कोई है जो मुझसे बख्शिश और मगफिरत तलब करे तो उसको बख़्श दूं, माफ़ कर दूं!
(मुतफ्फिक अलैहे)
दूसरी रवायत में, जाबिर बिन अब्दुल्ला राजियालाह अनाहा बयान करते हैं की रसूल अल्लाह अलैहि व सल्लम ने अरशद फरमाया:"हर रात में एक घड़ी ऐसी होती है कि अगर कोई मुसलमान दीन और दुनिया की भलाई के लिए दुआ करता है, तो अल्लाह उसे कबूल करता है।"(मुतफ्फक अलैहे)
हाँ, सभी रातों में से केवल एक रात ही हज़ार महीनों से बेहतर है और इसे अल्लाह और रसूल ने दिया है, वह है "लैलतुल क़द्र"।जो रमज़ान के आखिरी अशरे की ता़क़ रातों में आती है।
Shab e baraat ki haqeeqat |
नमाज़,रोज़ा तो इबादत है और इसकी दलील क़ुरान और हदीस में मौजूद है लेकिन ये आतिशबाज़ी, दीये और कब्रिस्तानों में मेले.........ये कौन सी इबादत है?
क्योंकि हमारे देश में ईरानियों और गैर मुस्लिमो का प्रभाव रहा है इसलिए ये खुराफात भी हमारे यहां शामिल हो गए हैं।इससे हर साल कई दुर्घटनाएं होती हैं। जान चली जाती है.और लाखों-करोड़ों रुपए फूंक दिए जाते हैं।जबकि अल्लाह ताला का हुक्म है और (धन) बर्बाद न करो, जो लोग बर्बाद करते हैं वे शैतान के भाई हैं।"(बानी इस्राइल)
शब-ए-बारात में आतिशबाजी और चरागन के बाद अब रह गया हलवा...
जैसा कि शुरू में कहा गया था, शिया सज्जन अपने इमाम-उल-ज़मां के आगमन की खुशी में मिठाइयाँ और हलवा बनाते थे, लेकिन जब मुसलमानों के डर से इस रात की फजीलत में रवायतें बनाई गईं, तो इसी तरह इन मिठाइयों और हलवे के लिए भी कहानियाँ बनाई गईं
शब ए बरात में हलवा बनाने की कहानी
सबसे पहले तो यही कहा जाता है की उस दिन युद्ध में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुबारक दांत शहीद हो गए थे। इस लिए हम हलवा बना कर नियाज़ देते हैं
तो जान लें की यह उहुद की लड़ाई की घटना है, जो शव्वाल की 6 तारीख को लड़ी गई थी और आप शाबान की 15 तारीख को हलवा पका रहे हैं। चलो अगर दांत टूटे हैं तो नरम हलवे से काम चल सकता है.यह जो सख़्त हलवा बनता है यह तो दांत वालों से भी आसानी से नहीं खाया जाता.और हैरत की बात है की दांत शहीद हुए नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के और खुशी में आप हलवा खा रहे हैं
दूसरी कहानी यह पेश की जाती है कि अमीर हमज़ा की शहादत की नियाज़ दी जाती है तो भाई, वह भी उहुद में शव्वाल की 6 तारीख को हुआ था, शाबान की 15 तारीख को नहीं तीसरी कहानी के बारे में बताया जाता है कि ये नियाज़ ओवैस क़रनी को दिया जाता है.जब उन्हें पैगम्बर के मुबारक दांत की शहादत की खबर मिली तो उन्होंने अपने सारे दांत तोड़ दिये।
पहली बात तो यह है कि ओवैस क़रनी के बारे में पाई जाने वाली ज़्यादातर रिवायतें ग़लत हैं।
लेकिन फिर भी अगर उनकी बात सच मानी जाए तो फिर उनकी पैरवी करते हुवे, बजाए हलवा खाने के उन्हें उन्हें अपने दांत तोड़ लेने चाहिए। अब आप समझ गए होंगे कि Shab e baraart ki haqeeqat क्या है?
Conclusion:
Shab e baraart ki haqeeqat अब सामने आ ही गई होगी! की दीन और इबादत के नाम पर इस रात आतिश बाज़ी चरागं और क्या क्या खुराफातें होती हैं!अगर बात सही लग रही हो, लेकिन फिर भी हम उन्हें सिर्फ इसलिए छोड़ने को तैयार नहीं हैं क्योंकि हमारे बड़े बुजुर्ग ये सब करते आ रहे हैं, तो अब हम इसे कैसे छोड़ सकते हैं?तो भाई ये तो मक्का के कुफ्फार भी कहते थे! हम इन बुतों को कैसे छोड़ सकते हैं, जिनकी पूजा हमारे बुजुर्ग करते आए हैं।'इसलिए मेरे भाई, जब हक़ वाजह हो जाए तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।
अल्लाह ताला हमें सच बोलने, समझने और अपनाने की तौफीक अता फरमाए।
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ˡᶦᵏᵉ ᶜᵒᵐᵐᵉⁿᵗ ˢᵃᵛᵉ ˢʰᵃʳᵉ
Frequently Asked Question:
Que: क्या इस रात हलवा बनाना सुन्नत है ?
Ans: नही ! इस रात हलवा बनाना बिदअ़त है.
Que: क्या शबे बारात की रात में कुरान नाज़िल हुआ ?
Ans: नही कुरान लैलातुल क़द्र में नाज़िल हुआ और लैलातुल कद्र की रातें रमज़ान में आती है ( सूरह दुखन आयत 3 और सूरह क़द्र आयत 1 देखें)
Que : क्या इस रात में अल्लाह-तआ़ला पहले आसमान पर आते हैं और दुआ कुबूल करते हैं
Ans: अल्लाह-ताला साल की हर रात में पहले आसमान पर आते हैं और दुआ कुबूल करते हैं, बुखारी और मुस्लिम की हदीस देखें)।
Que: क्या इस रात में इंसान का रिज़क, उमर, मौत का वक्त लिखा जाता है
Ans: नही! ये सारे काम लैलतुल क़द्र में होते हैं जो रमज़ान में आती है !(सूरह दुखन आयत 4 - 5 देखें)
Que: क्या रात में मुर्दो की रूहें अपने परिवार से मुलाकात करने आती है...
Ans: अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला का फ़रमान है कि इन्तेक़ाल के बाद सभी रूहें या तू इल्लिइन या सिज्ज़िन में होती हैं और क़यामत तक वहां से बाहर नहीं आ सकती तो इस रात कैसे आएंगी (सूरह मुमिनून आयत 99 -100 देखें)।
Que: क्या इस रात की कोई खास इबादत या नमाजें हैं ?
Ans: नही! इस रात की कोई भी ख़ास नमाज़ या जिक्र कोई भी सही हदीस से साबित नहीं है ऐसा करना बिदअ़त में शामिल होगा ¡
Que: क्या इस दिन का कोई ख़ास रोज़ा है ?
Ans: ये भी किसी सही हदीस से साबित नहीं है, 15 शाबान को खास कर के रोजा रखना बिदअ़त है। हर महीने के 13, 14, 15 (अय्याम ए बीध) का रोजा रखना सुन्नत है)
Que: क्या इस रात खास कर कब्रिस्तान जाना चाहिए ?
Ans: ये भी किसी सही हदीस से साबित नहीं, 15 शाबान की रात में खास कर कब्रिस्तान जाना बिदअत है!
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1 Comments
Bahut khoob
ReplyDeleteplease do not enter any spam link in the comment box.thanks