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दीन में ग़ुलूअ/ Deen me Guloo

Deen me Guloo/ दीन में गु़लुअ़

दीन में ग़ुलूअ/ Deen me Guloo
दीन में ग़ुलूअ/ Deen me Guloo



Deen me Guloo करना यानी किसी को उसके ओहदे, मरतबे या हैसियत से आगे बढ़ा देना होता है! और अक्सरियत ने ये काम अल्लाह के नेक बंदों और नबियों के साथ किया है ! और इस उम्मत ने हमारे अपने ही प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ ये काम किया! उनकी मोहब्बत, अ़की़दत और चाहत में इतना गुलुअ किए ,उनका मुकाम और मर्तबा इस कदर बढ़ा दिए की अल्लाह का शरीक तक ठहरा दिए! आइए पढ़ें कैसे ?


    🔹अज़मत और महानता के साथ की गई हर तरह की 'तारीफ़' (हम्द) का हक़दार सिर्फ़ अल्लाह तआ़ला है। दूसरा कोई हक़दार हो भी कैसे सकता है कि उसकी मर्ज़ी बिना तो वजूद में आना भी किसी के बस में नहीं। नबी-रसूल, जिन्नो-इन्सान और फ़रिश्ते सब उसकी मख़लूक़। सब उसके ग़ुलाम...न कोई ख़्वाजा न कोई ग़ौस, न कोई सरवर - न कोई परवर, न कोई मुश्किल कुशा न कोई हाजत रवाँ, न कोई पीर न कोई दस्तगीर, न कोई सरकारे दो आलम-न कोई आक़ा-ऐ दो जहां न कोई आलिमुल-ग़ैब और न ही कोई मुख़्तारे-कुल, बल्कि जो कुछ है बस वही रब्बुल आलिमीन "अल्लाह ताअला" है। बाक़ी सब उसके लाचारो-मुहताज, बेकसो-बेबस, दासो-ग़ुलाम और बिल्कुल "बेइख़्तियार"। जिसने जरों को सूरज बनाया, उसी ने अपने बन्दों में से जिसे चाहा "नबी-रसूल" बना दिया और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम (जिन पर हमारे माँ-बाप क़ुर्बान हों) को अपना आख़िरी रसूल बनाया। उन पर क़ुरआन नाज़िल किया। जिसमें 'डरने वाले' तमाम लोगों के लिये हिदायत की गारण्टी रखी। मुसलमानों ने जब तक क़ुरआन को मज़बूती से थामे रखा 'हिदायत' पर क़ायम रहे। इससे ग़ाफ़िल हुए तो "गुमराह" होते चले गये।


    गुलुअ कब किए जाने लगा ?


    🔸क़ुरआन से बेतअ़ल्लुक़ी और दीनी - ग़फ़लत से "ईमान" में कमज़ोरी आने लगी। ईमान की कमज़ोरी दिल को भी अंधा बना देती है। फ़िर हलाल-हराम या जायज़ नाजायज़ की तमीज़ बाक़ी नहीं रहती। इसी कमज़ोरी ने मुसलमानों में रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए अन्धी अक़ीदत और ग़ैर-शरई मुहब्बत को जन्म दिया। आपकी शख़्सियत को लेकर "ग़ुलूअ" किया जाने लगा। 'कलमा-ए-शहादत' में रसूल से पहले "अल्लाह की ग़ुलामी" का जो इक़रार किया था। शैतान ने उसे भुला दिया। ग़ुलामी का यह तसव्वुर एक बार जो हटा तो मुसलमानों ने आपको अल्लाह की ग़ुलामी से बाहर कर दिया। लोगों ने अल्लाह के दिये हुए दुनिया के सबसे बड़े "नबी-रसूल" के मरतबे को न काफ़ी या हल्का समझ, आपके नाम के साथ सरवरे-कायनात, सरकारे-दो-आलम - - या मुख़्तारे-कुल जैसे कई शिर्किया अल्क़ाब भी जोड़ दिये।


    ✨आपकी शख़्सियत को लेकर आ चुके इस बिगाड़ को दूर करने के लिये यहां एक छोटी मगर मुखलिसाना कोशिश की जा रही है। अल्लाह से डरने वाले तमाम दीनी-भाईयों से गुज़ारिश है कि अजनबी हो चुके रसूलुल्ल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मर्तबे को क़ुरआन-हदीस के ज़रिये पहचानने की एक बार कोशिश ज़रूर करें। अल्लाह का वादा है कि "वह - कोशिश करने वाले हर शख़्स को रास्ता दिखा कर रहता है।" (सूरः अनकबूत आ.नं. 69 )

    क्या मुहम्मद रसूलुल्लाह ﷺ सब नबियों से आला अफ़ज़ल हैं?

    दीन में ग़ुलूअ/ Deen me Guloo
    दीन में ग़ुलूअ/ Deen me Guloo


    यह बात सही कि अल्लाह ने 'आपको' पूरी दुनिया के लिये रहमतुलिल् आलिमीन बनाया, 'आप पर नबुव्वत का ख़ात्मा किया' और 'आपको मैराज (आसमान की सैर करवाई --ये और इन जैसी कई ऐसी फ़ज़ीलतें हैं जो दूसरे नबियों को नहीं दी गई।

    🔹इसी तरह दूसरे नबियों को जिन फ़ज़ीलतों से नवाज़ा गया, वो फ़ज़ीलतें मुहम्मद ﷺ को नहीं मिली। मसलनः अल्लाह ने आदम अलैहिस्सलाम को तमाम दुनिया वालों का बाप बनाया, इब्राहीम अलैहिस्सलाम को अपना ख़लील बनाया, ईसा अलैहिस्सलाम को कई ज़बरदस्त मौजज़े (करिश्मे) देने के बाद दुनिया से ज़िंन्दा उठाया, सुलैमान अलैहिस्सलाम जैसी बादशाही किसी को नहीं दी कि फंला नबी-फंला नबी से छोटा या बड़ा हो गया। यह तो अल्लाह का फ़ज़ल है, जिसके ज़रिये वह चाहे जिसके दर्जात को बुलन्द फ़रमा दे। हमें कोई हक़ नहीं पहुंचता कि अल्लाह के नबियों के बीच 'दर्जात' को लेकर किसी तरह का कोई फ़र्क़ करें। ख़ास तौर पर तब जबकि ख़ुद अल्लाह के रसूल ने ऐसा करने से साफ़ मना कर दिया कि:-


    (i) "ला तुफ़ज्जिलूनि अलल अम्बिया मुझे नबियों पर कोई फ़ज़ीलत मत दो। (हदीस, बुख़ारी/मुस्लिम शरीफ़)

    (ii) "ला तुखय्यिरूनी बयनल अम्बिया" मुझे नबियों के बीच बेहतर मत समझो। (हदीस, बुख़ारी शरीफ़)

    (iii) "कोई शख्स मुझे यूनुस अलैहिस्सलाम से बेहतर न कहे।" (हदीस, बुख़ारी शरीफ़)

    (iv) "आपको एक शख़्स ने "खयरूल बरिया" (तमाम मख़लूक़ में अफ़ज़ल) कहा तो आपने फ़र्माया- "ख़यरूल बरिया" तो इब्राहीम अलैहिस्सलाम हैं। (हदीस अबू दाउद शरीफ़)

    (v) "तुम मुझे मेरी हद से आगे न बढ़ाना, जिस तरह ईसाईयों ने ईसा इब्ने मरयम को बढ़ा दिया था...... मैं तो अल्लाह का बन्दा हूं। बस मुझे उसका बन्दा या रसूल (रसूलुल्लाह ﷺ) कहा करो।” (बुख़ारी शरीफ़)
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    🔸इस तरह रसूलुल्लाह ﷺ के मना कर देने की वजह से ही सहाबा-ए-किराम ने आपको आकाए-नामदार, ताजदारे-मदनी, इमामुल-अम्बिया, सय्यदुल मुरसलीन, सरवरे-कायनात, सरकारे दो आलम, सय्यदुल-कौनैन, या मुख़्तारे कुल जैसे "ख़ुद साख़्ता अल्क़ाब" से कभी नहीं पुकारा। और तो और अल्लाह ने क़ुरआन में 'आपको' रहमतुल लिल् आलिमीन व ख़ातमुन्नबीयीन भी कहा.....मगर फ़िर भी किसी साहबी ने आपको किसी "सिफ़ाती नाम" से नहीं बल्कि आपके हुक्म के मुताबिक़ "रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम" कहकर पुकारा। क्योंकि उनको अच्छी तरह एहसास था कि 'आपकी' ज़रा सी नाफ़रमानी सारे आमाल को बर्बाद कर सकती है। (क़ुरआन सूर : मुहम्मद आ. न. 33)


      इसके बावजूद भी अगर हमनें "आपके" नाम के साथ मनमर्ज़ी के अल्क़ाब लगाने नहीं छोड़े तो साबित हो जायेगा कि हमनें "नबी-रसूल" के शानदार मर्तबे को वाक़ई हल्का या कमतर समझा है, या फ़िर हम लोग सहाबा-कराम से ज़्यादा समझदार व दीनदार हो चुके हैं?


    क्या रसूलुल्लाह ﷺ भी आलिमुल ग़ैब थे ?


    🔸दरअसल अल्लाह का यह तरीक़ा रहा है कि अपने रसूलों को ग़ैब की कई ऐसी बातें बतलाता है जो किसी उम्मती को पहले मालूम नहीं हुआ करतीं। बस यहीं से यह "शैतानी धोखा" हुआ कि रसूलुल्लाहु ﷺ भी "आलिमुल-ग़ैब" थे। हालांकि इस अक़ीदे के मुताबिक़ तो सारे नबी-रसूल भी "आलिमुल-ग़ैब" कहलाने के हक़दार है। इस बुनियादी-अक़ीदे को भुला दिया कि "जो बात ज़ाहिर कर दी जाये फ़िर वह 'ग़ैब' (छुपी) नहीं रहा करती।"

    🔹इस बुनियादी चूक से ख़तरनाक बिगाड़ यह हुआ कि लोगों ने पीरों-फ़क़ीरों, सूफ़ी-सन्तों या ख़्वाजा-ग़ौस जैसी नाम-निहाद कई ज़िंन्दा-मुर्दा हस्तियों को भी अल्लाह की इस "आलिमुल ग़ैब" वाली सिफ़त में शरीक बना डाला। क़दम-क़दम पर लोगों ने दिलों के हाल जानने वाले आलिमुल ग़ैब, कारसाज़ या हाजतरवाँ खड़े कर लिये और शरीयत की असल रूह "अल्लाह के सिवा दिलों का हाल कोई नहीं जानता” का जनाज़ा निकाल दिया। जबकि अल्लाह का फ़रमान तो यह है कि :-

    (a) कुल ला यालमु मन फ़ीस्समावाति वल अरज़िलगयबा इल्लल्लाह वमा यशउरूना अय्याना युबअसून (ऐ रसूल.) कह दो : "ज़मीन-आसमानों में अल्लाह के सिवा किसी को ग़ैब का इल्म नहीं, बल्कि उनको तो यह भी पता नहीं कि उन्हें उठाया कब जायेगा।” (क़ुरआन मजीद सूरः अन-नमल आ. 65 )

    (b) ऐ मुहम्मद ﷺ कह दो: "मैं न तो अपने भले का मालिक हूं और न ही बुरे का, बस अल्लाह ही जो चाहता है होता है। अगर मुझे ग़ैब का इल्म होता तो बहुत से फ़ायेद समेट लेता और मुझे कोई नुक़सान भी न पहुंचता। मैं तो बस ईमान वालों को डराने और ख़ुशख़बरी देने वाला हूं। (सूरः अल आराफ़ आ. नं. 188)


      इसी तरह "आपको बछड़े के गोश्त में ज़हर देने की कोशिश, दुश्मनों द्वारा क़ुरआन हुफ़्फ़ाज़ को ले जाकर शहीद कर देना, जंगे-उहूद में आपको शदीद चोट पहुंचना, आपके दान्त मुबारक का शहीद हो जाना, या बिना 'वही' (Revealation) के किसी बात का आप द्वारा जवाब न दे पाना — जैसी सैंकड़ों शरई मिसालें साबित करती हैं कि न तो आप आलिमुल ग़ैब थे, और न ही अल्लाह के सिवा कोई दूसरा आलिमुल-ग़ैब हो सकता है। आपको तो उतना ही इल्म था जितना अल्लाह ने बतलाया। फ़िर भी शैतान के बहाकवे में आकर हमने आपको या इन नाम निहाद हस्तियों को आलिमुल-ग़ैब समझना नहीं छोड़ा तो नाऊज़ुबिल्लाह दीन इस्लाम भी दूसरे धर्मों की तरह एक खेल-तमाशा बन कर रह जाएगा और इस्लाम दुश्मनों को हमारे दीन पर किचड़ उछालने का बहाना मिल जाएगा।

    क्या मुहम्मद ﷺ वाक़ई ज़िंन्दा व हाज़िर-नाज़िर हैं ?

    दीन में ग़ुलूअ/ Deen me Guloo


    🔸कुछ मतलब परस्त मौलवियों ने अपनी लफ़्फ़ाज़ियों के ज़रिये “अल्लाह के रास्ते में मारे जाने वालों को मुर्दा न समझना” जैसी आयत को तोड़-मरोड़ कर यह मुश्रिकाना अक़ीदा फ़ैला दिया कि रसूलुल्लाह ﷺ को मौत नहीं आई - बल्कि आपने पर्दा ले लिया। अल्लाह ने ऐसे तमाम मुश्रिकाना अक़ाईद को रिजेक्ट करते हुए फ़र्माया कि :-


    (i) "अल्लाहु ला लाइलाहा इल्ला हुवा अलहय्यूल क़य्यूम" अल्लाह के सिवा दूसरा कोई पूज्य नहीं और ज़िंन्दा व क़ायम रहने वाली ज़ात सिर्फ़ अल्लाह की है। (क़ुरआन सूर अल बक़र आ. 255 और सूर आले इमरान - आ. 2)

    (ii) "कुल्लु नफ़सिन जायक़तुल मौत सुम्मा इलयना तुरजऊन" हर जानदार को मौत का मज़ा चखना है, फ़िर सब हमारी ही तरफ़ पलटाये जायेंगे।" (सूर अल अनकबूत आ. न. 57)

    (iii) "मुहम्मद इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल हैं। इनसे पहले भी बहुत से रसूल गुज़र चुके हैं। फ़िर अगर वह मर जायें या क़त्ल कर दिये जायें तो क्या तुम "दीन से" उल्टे फ़िर जाओगे? याद रखो, जो कोई उल्टा फ़िरेगा वह अल्लाह को कुछ नुक़सान नहीं करेगा। अलबत्ता जो लोग अल्लाह के शुक्रगुज़ार बन्दे बनकर रहेंगे, उन्हें अल्लाह बेहतरीन बदला देगा। (सूरः आले इमरान, आ. न. 144)

    (iv) और सूरह जुमर में अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला का खुला फरमान है की: "इन्नक मैयतु व इन्नहुम मैयातून "(ऐ नबी) तुम्हें भी मरना है और इन लोगों को भी मरना है।(सुरह अलजु़मर:30)


    इन खुली-खुली आयात के बावजूद अगर कोई आपको अभी भी ज़िंन्दा, हाज़िर-नाज़िर या पर्दे में समझता है तो उसे इन सवालों का जवाब भी देना पड़ेगा कि "जहां एक तरफ़ पूरी उम्मते-मुस्लिमा, फ़िरक़ों-जमाअतों में बँटकर आपस में गुत्थम-गुत्था है, वहीं दूसरी तरफ़ मुसलमान — काफ़िरों के हाथों जगह-जगह ज़ुल्मों-सितम का शिकार बनायी जा रही ....... ऐसी सूरत में क्या रसूलुल्लाह ﷺ चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे हैं, हमारी कोई मदद नहीं कर पा रहे ?"

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       इसी तरह हज़रत अबुबक्र रज़ियल्लाहु तआला अन्हु द्वारा आपकी मौत का ऐलान करना, साहबा-कराम का आपकी नमाज़े-जनाज़ा पढ़ना, आपको अपने हुजरे में दफ़न करना, और आपकी क़ब्र का मस्जिदे नबवी (मदीना-मुनव्वरा) में आज भी मौजूद होना-क्या यह सब महज़ एक नाटक है? क्या आपके साहबा-कराम इतने संगदिल थे कि अपनी जान से ज़्यादा प्यारे नबी को नउज़ुबिल्लाह ज़िंन्दा दफ़न कर दिया? ज़रा ग़ौर तो करो कि ऐसा अक़ीदा आप और आपके साहबा की शान में ख़तरनाक गुस्ताख़ी नहीं कहलायेगा ?

    ह़की़क़त और असल दीन को अपनाएं

    दीन में ग़ुलूअ/ Deen me Guloo


       अटल सच्चाई तो यह है कि अल्लाह के सिवा हर जानदार को मौत ज़रूर आती है। यही अल्लाह का निज़ाम है और इसी निज़ाम के तहत आप को मौत आ चुकी। अब "आप ख़ुद" नहीं बल्कि आपका लाया हुआ "मिशन क़यामत तक ज़िंन्दा व क़ायम रहेगा। यही "असल-दीन" है, बाक़ी सब "गुमराही"।

    अभी भी वक्त है कि मौत आने से पहले अपने इन मुश्रिकाना अक़ाईद से तौबा कर अपनी बाक़ी बची ज़िन्दग़ी, सुन्नते-रसूल के मुताबिक़ गुज़ारें यही आपसे सच्ची मुहब्बत है। क्योंकि जिसके दिल में रसूलुल्लाह ﷺ के लिये तमाम दुनिया से बढ़कर मुहब्बत नहीं - वह मुसलमान नहीं। आपकी शान में की गई ज़रा सी ग़ुस्ताख़ी जहन्नम में ले जा सकती है। आपसे मुहब्बत कैसे की जाये-यह साहबा-कराम (रसूलुल्लाह ﷺ की वफ़ात से पहले) वाली ज़िन्दग़ी से सीखा जा सकता है। उन्होंने हमारी तरह कभी भी मनमर्ज़ी के सलातो सलाम नहीं पढ़े, कभी अंगूठे नहीं चूमे, कभी रसूलुल्लाह ﷺ या किसी का जन्म दिन (ईद मिलाद वग़ैरह) नहीं मनाया, जुलूस नहीं निकाले, आपके बाल, जुब्बे, लाठी या अमामा से किसी तरह की कोई चुमा-चाटी नहीं की और न ही हमारी तरह किन्हीं मुश्रिकाना-ख़ुराफ़ातों को अपनाया बल्कि उन्होंने पूरे दिल की गहराईयों से आपको अल्लाह का रसूल माना। आपके हर क़ौलो-फ़ैल को अपनी ज़िन्दग़ी में ईमानदारी के साथ लागू किया और ज़रूरत पड़ने पर अपनी जान भी 'आप' पर क़ुर्बान कर दी. .......हमारी तरह बहरूपिये बनकर झूठी मुहब्बत का ढोंग नहीं रचाया।

    ✨क्योंकि हमारा दावा तो "आशिके-रसूल का है - मगर हमारी शक्ल-सूरतें और आमाल में मुहब्बते-रसूल की दूर-दूर तक कोई झलक नज़र नहीं आती। आपकी सुन्नत छूटे तो छूटे, आपकी नाफ़रमानी हो तो हो...पर इमाम की तक़लींद नहीं छूटती - क्या यही "मुहब्बते-रसूल" है? लानत हो ऐसी झूठी मुहब्बत पर।

    👍🏽        ✍🏻         📩         📤
    ˡᶦᵏᵉ    ᶜᵒᵐᵐᵉⁿᵗ    ˢᵃᵛᵉ      ˢʰᵃʳᵉ

    Conclusion:

    प्यारे दीनी भाइयों! एक तरफ़ तो अल्लाह और उसके रसूल के फ़र्मान (क़ुरआन-हदीस) हैं। दूसरी तरफ़ मतलब परस्त मौलवियों की लफ़्फ़ाज़ियां फ़ैसला हमें ही करना है कि क़ुरआन-हदीस को अपनाना है या मौलवियों की लफ़्फ़ाजियों के धोखे में आना है? जहन्नम से अगर वाक़ई निजात पानी हैं तो "असल दीन" (क़ुरआन-सुन्नत) पर क़ायम होना ही पड़ेगा। इसी तरह कलमाए-हदीस के मुताबिक़ "आपको" रसूल के साथ-साथ अल्लाह का बन्दा या ग़ुलाम भी मानना फ़र्ज़ है। इसके बग़ैर हम मुसलमान नहीं हो सकते यही असल-दीन है।

    🤲🤲 अल्लाह हमें हक़ क़बूल करने की हिम्मत और तौफ़ीक़ अता फरमाए और Deen me Guloo की हद तक बढ़ने से बचाए! 🤲आमीन

    FAQs:

    Que: दीन में गुलु क्या है ?

    Ans: किसी को उसके ओहदे, मरतबे या हैसियत से आगे बढ़ा देना यानी मोहब्बत, अ़की़दत और चाहत में इतना बढ़ जाना ,उनका मुकाम और मर्तबा इस कदर बढ़ा देना की अल्लाह का शरीक तक ठहरा दिया जाए गुलू कहलाता है.

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