Dua sirf Allah Se/ दुआ सिर्फ़ अल्लाह से
Dua sirf Allah Se ही करनी चाहिए ! हमारी हर तलब और हर ज़रूरियात अल्लाह से ही होनी चाहिए ! आईए क़ुरआन और सुन्नत की रौशनी में जानें! क़ुरआन करीम की पहली सूरह अल-फ़ातेहा में अल्लाह सुब्हान व तआ़ला फ़रमाता है
"इय्याका ना अबुदु व इय्या क नस्तईन"
तर्जुमा: हम सिर्फ तेरी ही बन्दग़ी करते हैं और तुझी से मदद माँगते है।दुआ एक बड़ी अहम इबादत है
यह बिल्कुल साफ है कि दुआ बड़ी अहम क़िस्म की इबादत है और इबादत सिर्फ़ अल्लाह का हक़ है। यानी अल्लाह के सिवाय कोई इबादत के लायक़ नहीं। इसी के मुताल्लिक़ एक हदीस से इमाम तिरमिज़ी (रहमउल्लाह) हदीस 2969 में रिवायत है कि “दुआ इबादत ही हैं।"और मुस्नाद अहमद हदीस 5586 में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है की: दुआ ही इबादत है और फिर सूरत गाफिर/मोमिन की ये आयत पढ़ी: और तुम्हारे रब का फरमान है के मुझसे दुआ करो ,में तुम्हारी दुआ कबूल करूंगा, जो लोग घमण्ड में आकर मेरी इबादत से मुँह मोड़ते हैं, ज़रूर वो बेइज़्ज़त और रुसवा होकर जहन्नम में दाख़िल होंगे।
Note: यहां तो अल्लाह का फरमान है की मुझ से दुआ करो मैं तुम्हारी दुआ कबूल करूंगा तो फिर ये गफलत में पड़े इंसान किधर जा रहे हैं अल्लाह को छोड़ कर ? क्यूं नहीं समझ पा रहा है की Dua sirf Allah Se ही करनी चाहिए!
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हम जानते हैं कि नमाज़ अल्लाह की इबादत है। इसलिये नमाज़ किसी रसूल या वली के लिये पढ़नी जाइज़ नहीं। इसी तरह अल्लाह तआला के सिवा किसी रसूल या वली से दुआ माँगी जाये तो यह भी जाइज़ न होगी।
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वोह मुसलमान जो या रसूलुल्लाह और या फलाँ मदद करो, फरियादरसी करो, कहते हैं तो यक़ीनन यह दुआ ही है और अल्लाह तआला के अतिरिक्त दूसरों की इदबादत भी। गो कि उनकी दिली नियत यही हो कि अल्लाह तआला ही देने वाला है। बल्कि उसकी मिसाल तो ऐसे व्यक्ति की सी है जो अल्लाह को बज़ाहिर गालियाँ दे और कहे कि मेरी नियत में तो अल्लाह तआला की तारीफ़ (प्रशंसा) करना था।
तो उसकी यह बात यक़ीन के क़ाबिल न होगी क्योंकि उसका कलाम नियत के ख़िलाफ़ है । इसलिए क़ौल का नियत और अक़ीदे (विश्वास) के अनुरूप होना अत्यंत आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं है तो फ़िर यह कृत्य अर्थात् अल्लाह के अतिरिक्त दूसरों से दुआ माँगना शिर्क या कुफ्र है जिसे अल्लाह तआला बिना तौबा के बिल्कुल माफ़ (क्षमा) नहीं करेगा ।
अपनी तमाम ज़रूरतें अपने रब से माँगो
हज़रत अनस (रज़ि०) बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : तुममें से हर शख़्स को अपनी तमाम ज़रूरतें अपने रब से माँगनी चाहियें यहाँ तक कि जब उसके जूते का तस्मा टूट जाए तो उसके बारे में भी उसी से सवाल करना चाहिये। तिरमिज़ी (8 / 406)।(मिश्कात अलमसाबीह: 2251)Note: अब इस हदीस पर गौर करें की बड़ी बड़ी दुख और परेशानी छोड़िए जूता का फीता भी टूट जाए तो अल्लाह से ही सवाल करनी है तो फिर ये बीच में पीर ,फ़कीर , बुज़ुर्ग और मजार वाले कहां से आ गये! गौर करें और अपना अकीदाह दुरुस्त करें !
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अल्लाह तक पहुंचने के लिए दुनियावी वसीला
इसी तरह यदि उपरोक्त क़िस्म का कोई मुसलमान यह कहें कि मेरी नियत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और वली से दुआ करना नहीं, बल्कि मेरा आशय तो अल्लाह और अपने मध्य एक मध्यस्थ (वसीला) पकड़ना है और कहते हैं कि जिस तरह मैं किसी बादशाह या प्रधानमन्त्री के पास बिना मध्यस्थ के नहीं पहुँच सकता इसलिये अल्लाह तक पहुँचने के लिये मध्यस्थ पकड़ता हूँ। तो ऐसा कहना निश्चय ही अल्लाह तआला की तुलना उसकी ज़ालिम मख़लूक से करना है और यह तुलना उसे कुफ्र तक पहुँचा देने वाली है।
अल्लाह तआला जो अपनी ज़ात और सिफ़ात में पाकीज़ा (पवित्र) है, फ़रमाता है- “कोई चीज़ उसके तुल्य नहीं, वह सब कुछ देखने वाला और सुनने वाला है" (अलशूरा)
जिनका अकीदह है की अल्लाह बगैर वसील का नही सुनता
हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : अल्लाह हर रात को जब रात का पहला तिहाई हिस्सा गुज़र जाता है, दुनिया के आसमान पर नुज़ूल फ़रमाता है। और कहता है। : मैं बादशाह हूँ, सिर्फ़ मैं बादशाह हूँ, कौन है। जो मुझे पुकारता है कि मैं इस की पुकार को सुनूँ? कौन है। जो मुझ से माँगता है कि मैं उसे दूँ? कौन है। जो मुझ से मग़फ़िरत तलब करता है कि मैं उसे माफ़ करूँ? वो यही ऐलान फ़रमाता रहता है। यहाँ तक कि सुबह चमक उठती है।(सहीह मुस्लिम#1773)
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मक्का के मुश्रिकों का अकीदा:
रसूले अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ज़माने में मुश्रिक यह विश्वास तो रखते ही थे कि अल्लाह तआला ही ख़ालिक और राज़िक है लेकिन वोह औलिया की बुत बना कर उनसे दुआएं माँगते और अल्लाह तआला का सामीप्य प्राप्त करने के लिये उन्हें मध्यस्थ (वसीला) ठहराते थे। तो अल्लाह तआला का उनके इस काम से राज़ी (प्रसन्न) होना तो दूर उनके इस वसीले को कुफ्र करार देते हुए अल्लाह पाक ने पवित्र क़ुरआन में यूँ फ़रमाया, "वोह लोग ज़िन्दगी में उसके सिवाय दूसरे सरपरस्त बना रखे हैं (और अपनी सफ़ाई में कहते हैं कि) हम तो उनकी इबादत इसलिये करते हैं कि वोह अल्लाह तआला तक हमारी रसाई करा दें। अल्लाह तआला यक़ीनन उनके दरमियान उन तमाम बातों का फैसला कर देगा जिनमें वोह एख़्तलाफ़ात कर रहे है। अल्लाह किसी भी ऐसे शख़्स को हिदायत नहीं देता जो झूठा और मुन्किर हक़ हो।" (अल ज़ुमर)
अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला तो बिलकुल क़रीब और सबकी पुकार सुनने वाला है
Allah bilkul qareeb aur pukar sunne wala hai |
- अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला बहुत क़रीब और ख़ूब सुनने वाला है।
- और ऐ नबी! मेरे बन्दे अगर आप से मेरे बारे में पूछें तो उन्हें बता दो कि मैं उनसे क़रीब ही हूँ। पुकारनेवाला जब मुझे पुकारता है, मैं उसकी पुकार सुनता और जवाब देता हूँ, तो उन्हें चाहिये कि मेरी पुकार पर लब्बैक [ हम हाज़िर हैं] कहें और मुझपर ईमान लाएँ।ये बात तुम उन्हें सुना दो शायद कि वो सीधा रास्ता पा लें ।" (अल बक़रा:186)
- “हिदायत, रिज़्क और शिफा देने वाला सिर्फ़ अल्लाह तआला ही है, दूसरा कोई नहीं।" (अल शूरा)
- अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला तुम्हारे साथ है जहाँ भी तुम हो। जो काम भी तुम करते हो उसे वो देख रहा है।(सूरत हदीद:4)
- “और दूसरी हस्तियाँ जिन्हें अल्लाह को छोड़ कर लोग पुकारते हैं, वोह किसी चीज़ के भी ख़ालिक नहीं है। मुर्दा हैं, न के ज़िन्दा और उनको कुछ मालूम नहीं है कि उन्हें कब दोबारह ज़िन्दा करके उठाया जाएगा। (अल नहल)
- ऐ मुहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) “कह दो, मैं तुम लोगों के लिये न किसी नुकसान का इख़्तियार रखता हूँ न किसी भलाई का। ऐ नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कहो, मैं तो अपने रब को पुकारता हूँ और उसके साथ किसी को शरीक नहीं करता।" (अल जिन्न)
- अल्लाह तआला के उपरोक्त फ़रमान के मुताबिक़ अल्लाह को छोड़ कर दूसरों से मदद तलब करना जाइज़ नहीं। बात एकदम साफ़ है कि किसी व्यक्ति द्वारा यह कहना कि या रसूलुल्लाह मदद कर, या अली मदद इत्यादि तो यह कुरआन और हदीस की रौशनी में क़त्तई नाजाइज़, शिर्क और गुनाहे कबीरा है, जिसे बग़ैर सच्ची और पक्की तौबा के अल्लाह तआला कभी माफ़ नहीं फ़रमायेगा।
- नबी ए करीम सल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया, "तुझे जब भी माँगना हो, अल्लाह से माँग और जब मदद तलब करे तो अल्लाह ही से तलब कर हदीस (तिर्मिज़ी)
अल्लाह तआ़ला बंदों को खाली हाथ लौटाने से ह़या करता है
सलमान फारसी रज़ी अल्लाह फरमाते हैं के: बेशक अल्लाह को इस बात से ह़या आती है की बांधा उसके सामने हाथ फैला कर खैर का सवाल करे फिर वो उन्हें खाली लौटा दे ! (मुसनद अहमद:23714)
Note: अब इस हदीस में देखिए की अल्लाह इतना ह़या वाला है की अपने बंदे की उठाया हुआ हाथ खाली नहीं लौटाना चाहता तो फिर हम अल्लाह को छोड़ कर किधर चले जा रहे हैं ? क्यूं दुआ में दूसरों को शरीक करते हैं ? क्या अल्लाह हमे यूंही छोड़ देगा ? कभी नहीं !!!
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क्या किसी मुर्दे या जो कब्रों में दफन हैं उनसे से दुआ करना जाइज़ है ?
सवाल उठता है, क्या किसी मुर्दे से या जो कब्रों में दफ़न हैं उनसे दुआ करना जाइज़ है ?
जब कि जीवित व्यक्ति से दुआ कराना सर्वथा जाइज़ है।
इस संदर्भ में आइये इस हदीस पर नज़र डालते है । हदीस का मफ़हूम इस प्रकार है
अमीरुल मोमिनीन हज़रत उमर फारूक़ (रज़ि) के ज़मानए ख़िलाफ़त में क़हत (अकाल) पड़ा तो आपने नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चचा हज़रत अब्बास (रज़ि) से अनुरोध किया। चूंकि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस दुनिया ए फ़ानी से तशरीफ़ ले जा चुके है और आप के सिवाय इस वक़्त सबसे ज़्यादह मुनासिब बुज़ुर्ग भला और कौन हो सकता है इसलिये आप से गुज़ारिश है कि आप अल्लाह से दुआ करें कि वोह अपनी रेहमत से बारिश कर दे।”
ज़िन्दा और मुर्दा इनमें किससे दुआ कराना जाइज़ है और किससे ना जाइज़ इस हदीस से कड़ी दलील और क्या हो सकती है।
यक़ीनन हम कह सकते है कि किसी मुर्दे से दुआ कराना, भले ही वोह कोई पेग़म्बर या वली ही क्यूँ न हो, दुरुस्त नहीं है, बिदअत है और ऐसी तमाम हदीसें मौजूद हैं जिससे साबित है कि बिदअती जन्नत में नहीं जाएँगे।
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शिर्किया नआ़त और कौवालीयां
हमारे देश में नाते रसूल और नातिया क़व्वालियाँ सुनने सुनाने का बड़ा रिवाज (प्रचलन) है। यहाँ मैं सिर्फ़ एक नातिया क़व्वाली का उल्लेख करना चाहूँगा जिसे साबरी बन्धुओं में आवाज़ दी है। शुरु के जिसके बोल है भर दो झोली मेरी या मुहम्मद, लौट कर मैं न जाऊंगा खाली। इस संदर्भ में और मैं जो कहूँगा उस पर ग़ौर करते हुए सद्बुद्धि रखने वाले ख़ुद निर्णय करें कि उपरोक्त क़व्वाली सरासर शिर्क है या नहीं?
इस बात पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि भक्ति और प्रेम दो अलग अलग चीज़ें है। अगर कोई मुझसे पूछे कि देश भक्ति और देश प्रेम में कौन महत्व पूर्ण है तो मेरा जवाब होगा देश प्रेम। वास्तव में इस्लामी नज़रिये से जो सच्चा मुसलमान होगा वह देश भक्त कभी नहीं हो सका क्यों कि जहाँ तक भक्ति का सवाल है तो भक्ति वह केवल परमेश्वर यानी अल्लाह की करता है और उसकी भक्ति में वह किसी को शरीक नहीं करता। इसी को तौहीद कहते हैं जो इस्लाम का पहला और महत्वपूर्ण पिलर (स्तम्भ) है। इसलिये एक सच्चा मुसलमान देश भक्त के बजाय देश प्रेमी होता है जो वक़्त पड़ने पर देश की ख़ातिर अपने प्राणों की बाज़ी लगाने को हरदम तैयार रहता है। ठीक इसी प्रकार एक सच्चा मुसलमान अल्लाह के सिवाय अपने प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की भी भक्ति कदापि नहीं कर सकता। भक्ति तो वह सिर्फ़ अल्लाह की करता है। बेशक वह अपने नबी से बेइन्तिहा प्यार करता है और उनके तरीक़ों पर चल कर अपनी ज़िन्दग़ी गुज़ारता है लेकिन मदद के लिये उनके आगे अपनी झोली नहीं फ़ैलाता बल्कि झोली वोह सिर्फ़ अल्लाह के आगे फ़ैलाता है।
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Conclusion:
आख़िर में मैं यही कहूँगा कि Dua sirf Allah Se ही होनी चाहिए ! इस्लाम की बुनियाद है तौहीद यानी एक अल्लाह की बन्दगी करना और नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बताये हुए रास्ते पर चलना। जब एक अल्लाह की ही बनदगी करनी है तो दुआ भी अल्लाह से ही करनी चाहिए!
इर्शादे बारी'तआला है -- "ऐ पैग़म्बर, कह दो कि ऐ लोगो, तुम्हारे परवरदिगार की ओर से सच्चाई तुम्हारे पास आ गयी है, सो जो इस पर अमल करेगा वह अपने ही भले के लिये करेगा और जो भटकेगा उसकी पथ भ्रष्टता उसी के आगे आयेगी। मैं तुम पर निगेहबान नहीं हूँ कि ज़बरदस्ती किसी राह पर खींच ले जाऊं और फिर तुम्हें उससे निकलने न दूँ ।” (क़ुरआन)
FAQs:
1. Que: दुआ क्या है?
Ans: दुआ़ एक इबादत है, दुआ मोमिन का हथ्यार है , अल्लाह से मदद और उसकी रहमत पाने का एक जा़रिया है !
2. Que: दुआ क्यों की जाती है?
Ans: लोग अपनी परेशानियों को दूर करने या हाजतों को पूरी करने के लिए अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला से मदद या पुकार लगाते हैं यही दुआ कहलाता है !
3. Que: दुआ किससे की जाती है?
Ans: दुआ केवल अल्लाह से की जाती है, क्योंकि इसका प्रभाव और परिणाम भी केवल उसी के हाथ में होते हैं।
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