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Maah e Muharram Muharramul Haram/माहे मुहर्रम मुहर्रमुल हराम

Maah e Muharram Muharramul Haram/माहे मुहर्रम मुहर्रमुल हराम

Maah e Muharram Muharramul Haram/माहे मुहर्रम मुहर्रमुल हराम
Maah e Muharram Muharramul Haram



Maah e Muharram Muharramul Haram फ़िरऔनी ज़ुल्म से नजात का महीना......
🤲अल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल आलमीन व आक़िबतुल मुत्तक़ीन वस्सलातु वस्सलाम अला अशरफ़िल अंबिया वल मुर्सलीन नबिय्यिना मुहम्मदिन व अला आले अस्हाबिल अजमईन अम्मा बअद!



    Maah e Muharram Muharramul Haram इन्तिहाई अज़मत का हामिल और बाबरकत है, मुहर्रमुल हराम इस्लामी साल का पहला महीना है। अल्लाह तआला का फ़र्मान है की:-

    अल्लाह के यहाँ महीनों की गिनती बारह ही है, अल्लाह के नविश्ते के मुताबिक़ उस दिन से जिस दिन अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया, जिनमें चार महीने हुर्मत वाले हैं, यही मज़बूत दीन है, लिहाज़ा इन महीनों में (क़त्ले ना-हक़ से) अपने आप पर ज़ुल्म नहीं करो। (सूरः तौबा : 32 )
    🔸हज़रत अबू बकर सिद्दीक (रज़ि.) से मरवी है कि नबी करीम (ﷺ) ने फ़र्माया, साल के बारह महीने होते हैं, जिनमें चार महीने हुर्मत के हैं, तीन तो लगातार हैं- ज़ीक़अदः, जिल्हिज: और मुहर्रम और रजब जो जमादि-उल-आख़िर और शाबान के बीच है। (बुख़ारी 3197)



    🔹हुर्मत का महीना होने वजह से इस महीने का नाम मुहर्रम रखा गया है। इन महीनों में जुल्म व क़त्ल बड़ा ही संगीन जुर्म है, हालांकि ज़ुल्म तो हर हाल में ज़ुल्म ही है, मगर हुर्मत के महीनों में इसकी संगीनी कुछ और ही ज़्यादा है। हम अपनी इस मुख़्तसर तहरीर माहे मुहर्रम को तीन क़िस्मों में तक़्सीम करेंगे, ताकि आप इस महीने के आमाले सालेह, बिदआत और मुन्करात से अच्छी तरह वाक़िफ़ हो सकें।


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     मुहर्रमुल हराम की तारीख़ी हैसियत :-

    🔸तारीख़ी लिहाज़ से ये महीना बड़ी अहमियत का हामिल है, अल्लाह तआला ने इसी महीने में फ़िरौन को दरिया में डुबोकर हलाक किया था, चूंकि फ़िरौन का ज़ुल्म और जब्र अपनी इन्तिहा को पहुंच चुका था, मगर जब अल्लाह की गिरफ़्त हुई और फ़िरौनो दरिया में डूब गए गये तो उसके बाद हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) और उनकी क़ौम ने सुख-चैन का सांस लिया, और हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने अल्लाह तआला के शुक्राने के तौर पर रोज़ा रखा। ज़िलहिज्जा का महीना अगर नमरूद के मुक़ाबले में हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) की फ़तेह का महीना है तो दूसरी तरफ़ मुहर्रमुल हराम का महीना फ़िरौन मुक़ाबले में हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) की फ़तेह का महीना है। अल्लाह तआला का एक निज़ाम है कि हर ज़ालिम को एक मुक़र्रर वक़्त तक ही के लिए मोहलत देता है फ़िर जब उसकी गिरफ़्त का वक़्त आ जाता है तो बड़ी पकड़ फ़र्माता है, दुश्मन ख़्वाह कितना ही ताक़तवर हो जाये, पावर ही नहीं बल्कि सुपर पावर या इससे बड़े किसी भी पावर और इख़्तियारात का मालिक हो जाए वो अल्लाह की क़ुव्वत के आगे बेबस है।

    🔸हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने जिस दौर में दअवते तौहीद का आग़ाज़ किया था वो दौर फ़िरऔन के उरुज का था। फ़िरऔन आपकी पैदाइश से क़ब्ल (पहले) बनी इस्राईल के सारे बच्चों को ज़िब्ह कर देता और बच्चियों को ज़िन्दा छोड़ दिया करता था। जब मूसा (अलैहिस्सलाम) को अल्लाह ने नबी बनाकर भेजा तो फ़िरौन के दरबार में ये कहकर भेजा कि 'अन्नबिय्य मअकस्समाअ व अररॉ' सुनने और देखने के लिहाज़ से मैं तुम दोनों के साथ हूँ।

    🔸हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने फ़िरौन के दरबार में जाकर तौहीद की दअवत दी, उसे एक अल्लाह की तरफ़ बुलाया और साथ ही अपनी क़ौम से कहा, 'ऐ मेरी क़ौम के लोगो! तुम अल्लाह से मदद तलब करो और सब से काम लो। ये ज़मीन अल्लाह की है। वो बन्दों में जिसे चाहे उसका वारिस बना दे और अन्जाम (ख़ैर) तो मुत्तक़ियों ही के लिए है।

    🔸वो हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) से कहने लगे, 'आपके आने से पहले हमें सताया जाता था और आपके आने के बाद भी सताया जाता है।' हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने जवाब दिया, 'अनक़रीब तुम्हारा रब तुम्हारे दुश्मन को हलाक कर देगा और इस सरज़मीन में तुम्हें ख़लीफ़ा बना देगा। फ़िर देखेगा कि तुम कैसे अमल करते हो।'

    🔸इसके बाद अल्लाह तआला ने फ़िरौन को कई साल तक क़हत और पैदावार की कमी में मुब्तला किया ताकि वो कुछ सबक़ हासिल कर सकें मगर वो इबरत हासिल करने की बजाय ग़रुर और सरकशी में हद से बढ़ गया, हक़ व बातिल वजूद की तारीख़ लिखी जाती रही, दअवते तौहीद जारी रही, फ़िरौन का ग़रूर और घमण्ड सर चढ़कर बोलता रहा।

    Maah e Muharram Muharramul Haram/माहे मुहर्रम मुहर्रमुल हराम
    Dariya me raasta banna 



    🔸इसके बाद अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) को हुक्म दिया कि अपनी क़ौम को लेकर मिस्र से निकल जाओ। फ़िरौन को जब इसकी इत्तला मिली तो उसने पीछा किया और जब दरिया के क़रीब पहुंच गया तो बनी इस्राईल घबराकर कहने लगे, 'मूसा! हम तो धर लिये गये।' हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने कहा- 'घबराओ नहीं अल्लाह हमारे साथ है।'

    फ़िर अल्लाह के हुक्म से हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने अपनी लाठी को पानी पर मारा और दरिया में बारह रास्ते बन गये जिससे मूसा (अलैहिस्सलाम) और इस्राईल समन्दर पार कर गये। पीछे से फ़िरौन ने आकर कहा- 'चलो ये रास्ता मेरे लिये है और अपने लश्कर लेकर समन्दर पार करने लगा।' लेकिन अल्लाह तआला ने उसे वहीं ग़र्क़ कर दिया (डुबो दिया) और दुनिया वालों के लिये उसकी मौत को सामाने इबरत बना दिया।

    जब ज़ुल्म गुज़रता है हद से क़ुदरत का जलाल आ जाता है। फ़िरौन का सर जब उठता है तो मूसा जैसा कोई पैदा होता है।

     ये अज़ीम वाक़िया इसी मुहर्रुमुल हराम की दस तारीख़ को पेश आया। इस वाक़िये से मालूम हुआ कि असल क़ुव्वत अल्लाह पास है और मुसलमानों को कभी मायूस नहीं होना चाहिए। दुनिया के मौजूदा हालात के तनाज़िर में हमे ख़सूसी तौर पर इस वाक़िये से इबरत हासिल करें और अल्लाह तआला की इताअत के ज़रिये इससे अपने तअल्लुक़ात को मुस्तहकम (मज़बूत) करें।

    🔹मुहर्रमुल हराम का महीना साल का पहला महीना है इसलिये हमारा अपना साल शुरू होता है। ये महीना हिजरत का महीना है। जिस हिजरत के बारे में आप (ﷺ) ने फ़र्माया कि- 'हिजरत इससे पहले के गुनाहों को मिटा देती है।'

    जिस हिजरत के बाद एक नई ज़िन्दगी मिली, एक नई सल्तनत क़ाइम हुई और इस्लाम फ़ैला और परवान चढ़ा। इसलिये तारीख़ी लिहाज़ से ये महीना काफ़ी अहमियत का हामिल है। अब आईये! ज़रा इसकी शरओ हैसियत मुलाहिजा फ़र्मायें।

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    माहे मुहर्रम की शरई हैसियत :-

         शरई लिहाज़ से इस महीने की बड़ी अहमियत है। इस महीने में कसरत से नफ़ली रोज़े रखना मसनून है जैसा कि अबू हुरैरह (रज़ि.) से मरवी है कि नबी करीम (ﷺ) ने फ़र्माया- रमज़ान के बाद सबसे बेहतरीन रोज़ा मुहर्रम का है, जो अल्लाह का महीना है और फ़र्ज़ नमाज़ों के बाद सबसे बेहतरीन नमाज़ सलातुल्लैल (तहज्जुद) है। (मुस्लिम)

    🔸हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजि.) ब्यान फ़र्माते हैं कि- नबी करीम (ﷺ) जब हिजरत करके मदीना तशरीफ़ लाए तो देखा कि दसवीं मोहर्रम को यहूदी रोज़े से हैं तो आप (ﷺ) ने उनसे पूछा कि, 'ये कैसा रोज़ा है?' जिस पर यहूदी ने जवाब दिया, 'ये इन्तहाई नेक और सालेह दिन है। यही वो दिन है जिसमें अल्लाह तआला ने बनी इस्राईल को उनके दुश्मनों से निजात दी थी, जिसकी ख़ुशी में हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) ने रोज़ा रखा था।' आप (ﷺ) ने फ़र्माया, 'मैं तो मूसा के मुआमले में तुमसे ज़्यादा हक़ रखता हूँ (कि रोज़ा रखूं)।' चुनांचे आप (ﷺ) ने रोज़ा रखा और सहाबा किराम को भी रोज़ा रखने का हुक्म दिया। (बुख़ारी : 3942)

    🔹आशूरा का रोज़ा इस लिहाज़ से भी बड़ी अहमियत व फ़ज़ीलत का हामिल है कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि.) बयान फ़र्माते हैं, मैंने रमज़ान के बाद आशूरा के रोज़ों से बढ़कर किसी और रोज़े का इतना एहतमाम करते हुवे नबी करीम (ﷺ) को नहीं देखा। (बुख़ारी : 2006)




    🔸एक दूसरी रिवायत में आप (ﷺ) फ़र्माते हैं- आशूरा का रोज़ा गुज़िश्ता (बीते हुए) एक साल के सग़ीरा (छोटे) गुनाह को मिटा देता है। (मुस्लिम) आशूरा का रोज़ा दसवीं मुहर्रम को रखा जाता है।

    🔹लेकिन नबी करीम (ﷺ) ने हमें हुक्म दिया है कि - तुम 9-10 या 10-11 यानी दसवीं से एक दिन पहले या एक दिन बाद में भी रोज़ा रख लिया करो ताकि यहूदियों की मुख़ालिफ़त हो जाए। (मुस्लिम)

    🔸जैसा कि दूसरी रिवायत में आप (ﷺ) ने फ़र्माया, अगर आइन्दा साल मैं ज़िन्दा रहा तो नौवीं को भी रोज़ा रखूंगा। (मुस्लिम)
    मगर इससे क़ब्ल (पहले) आप (ﷺ) दुनिया से रुख़सत हो गये।

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     इस माह की बिदआ़त व ख़ुराफ़ात :-





    🔹ये महीना अपनी पहली दो हैसियतों से तो इम्तियाज़ी शान का मालिक है मगर अफ़सोस कि दुनिया के नामनिहाद मुसलमानों ने इस महीने की हुर्मत को पामाल कर दिया। इसकी तारीख़ी हैसियत को फ़रामोश कर दिया और इसकी हैसियत को जंग आलूद करके नोहा व मातम, ढोल व ताशा और दीगर मुन्करात में आगे बढ़ गये। 61 हिजरी में कर्बला के मैदान में आप (ﷺ) के नवासे हज़रत हुसैन (रज़ि.) की शहादत का सानिहा पेश आया। जिसकी याद में लोग नोहा व मातम करते हैं, हालांकि नबी करीम (ﷺ) का फ़र्मान है कि किसी मुसलमान के लिये तीन से ज़्यादा किसी मय्यत का सोग मनाना जाइज़ नहीं। अलबत्ता किसी औरत का शौहर मर जाये तो वो चार माह दस दिन तक सोग मना सकती है। मगर अफ़सोस कि हज़ारों साल गुज़र जाने के बआ़द भी नोहा़ व मातम की ये रस्म ख़त्म नहीं हो सकी, हालांकि ये एक खुली गुमराही और सरीह़ बिदअ़त है।



    एक दूसरी रिवायत में आप (ﷺ) ने फ़र्माया, वो शख़्स हममें से नहीं है जो गिरेबान फाड़े, छाती को पीटे और जाहिलियत की पुकार पुकारे। (मुत्तफ़क़ अलैह)

    🔹मुहर्रमुल हराम के महीने में तअज़िया की रस्म एक हिन्दुवाना रस्म है। इस दिन बिदअती मुसलमान काले कपड़े पहनता है। इस दिन ग़िज़ा नहीं खाता है। नोहा व मातम करता है। मर्सिया और दूसरे क़साइद का एहतमाम करता है। आशूरा के चालीस दिन बाद चेहलुम करता है, जिसमें खाने और दावत का एहतमाम किया जाता है। दरअसल ये रस्म यहूदी साज़िश, हिन्दुओं की नक़ल और रवाफ़िज़ के मक्र का नतीजा है। इस महीने की ख़ुशी इसका रोज़ा रखना है। इसकी तारीख़ी और शरई हैसियत फ़तह ख़ैबर और दूसरे अज़ीम तारीख़ साज़ मअरको और फ़ुतूहात के इस महीने को यहूद ने एक मक्र के ज़रिये मातम-ए-हुसैन में तब्दील कर दिया है।

    Note:-🔸गणेश चतुर्थी हिन्दुओं का त्यौहार है। जिसमें हिन्दू अपने देवता गणेश की मूर्ति बनाता है और दस दिन तक उस मूर्ति के आगे गाने और अशआर पढ़ता है। फ़िर दसवें दिन इस मूर्ति को एक जुलूस के साथ किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर देता है।

    🔹इसी तरह का यही काम एक मुसलमान मुहर्रमुल हराम में करता है और तअज़ियः बनाकर दस दिन तक नोहा व मातम करता है। तअज़ियती जलसे करता है और इमाम हुसैन (रज़ि.) की मुहब्बत का दम भरता है। दसवें दिन तअज़ियः को एक जुलूस के साथ किसी क़रीबी नदी या तालाब में ले जाकर ठण्डा कर देता है। दोनों में फ़र्क़ क्या है?

    किसी ने क्या खूब कहा है कि 

    देखा जो तअज़ियः को पण्डित ने ये कहा,

    तूने तो मेरे मन्दिर का नक़्शा चुरा लिया।

    काग़ज़ में जब हुसैन को तूने बुलाया,

    मिट्टी की मूर्ति में ख़ुदा क्यों न आयेगा ?



    🔸चूंकि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के मुसलमानों में बहुत से रस्में हिन्दुओं से घुस आई हैं। दीवाली के मुक़ाबले में शबे बारात, गंगा जल के मुक़ाबले में आनासागर, दान के मुक़ाबले में नज़्र व न्याज़, मन्दिरों के मुक़ाबले में दरगाहें, अवतार के मुकाबले में औलिया। इसी तरह दशहरे के मुक़ाबले में तअज़ियः की ये रस्म है।

    🔹हिन्दुस्तान में ये रस्म अमीर तेमूर लंग लाया था। मुग़ल बादशाहों के ज़माने में एक शीआ वज़ीर मुअज़दल शीआ ईजाद की थी। अफ़सोस तो ये है कि मातम की आड़ में सहाबा किराम को बुरा-भला कहा जाता है, उन्हें गालियां दी जाती है। और सहाबा किराम पर भी तीर व नश्तर चलाये जाते हैं जिनका इस वाक़िये से दूर का भी तअल्लुक़ नहीं है बल्कि उस वक़्त वो दुनिया में मौजूद ही न थे।

    🔸यहा तक कि उनके मक्र व फ़रेब का हाल ये है कि वाक़िया ब्यान करते वक़्त इमाम हुसैन (रज़ि.) के असल क़ातिलों का नाम भी नहीं लेते इसलिये हमें इस यहूदी और शीआई को समझने की ज़रूरत है।

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     Conclusion:-

    अल्लाह से दुआ है कि हमें इस Maah e Muharram Muharramul Haram की तारीख़ी और शरई हैसियत को पहचानने और उसकी क़द्र करने की तौफ़ीक़ अता फ़र्माए और यहूदो-नसारा के मक्र से महफूज़ रखे, और हमें दिलों का तक़वा अता फ़र्माए और आख़िरत की फ़िक्र के ज़रिये इस्लाह व आमाल की तौफ़ीक़ बख़्शे, आमीन!!

    अल्लाह तआला का फ़र्मान है- ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और हर एक को ये देखना चाहिए कि उसने कल के लिए के क्या सामान किया है और अल्लाह से डरते रहो और जो कुछ तुम करते हो यक़ीनन अल्लाह उसे पूरी तरह बाख़बर है। (अल- हश्र : 18)

    FAQs:-

    Que: माहे मुहर्रम की शरई हैसियत क्या है?
     Ans: शरई लिहाज़ से इस महीने की बड़ी अहमियत है। इस महीने में कसरत से नफ़ली रोज़े रखना मसनून है जैसा कि अबू हुरैरह (रज़ि.) से मरवी है कि नबी करीम (ﷺ) ने फ़र्माया- रमज़ान के बाद सबसे बेहतरीन रोज़ा मुहर्रम का है, जो अल्लाह का महीना है और फ़र्ज़ नमाज़ों के बाद सबसे बेहतरीन नमाज़ सलातुल्लैल (तहज्जुद) है। (मुस्लिम)


    Que: इस्लाम में मुहर्रम का क्या महत्व है?
    Ans: इस्लाम में माह ए मुहर्रम की बहुत बड़ी फजीलत और अहमियत है ! लेकिन इस महीने में की जाने वाले खुराफात ताजियादारी, जुलूस झंडे और मातम का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ नही है !

    Que: दुनिया में सबसे पहला ताजिया किसने बनाया था?
    Ans: इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक ‍शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ-सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं।

    Que: इस्लाम साल का पहला महीना क्या है ?
    Ans: मुहर्रमुल हराम इस्लामी साल का पहला महीना है !

    Que: ताज़िया बनाना कैसा है ?

    Ans: हज़रत मौलाना मुहम्मद इरफ़ान रिज्वी साहिब बरेलवी का फ़तवा है की ताजिया बनाना और उस पर फूल हार चढ़ाना वगेरह सब नाजायज और हराम है!
    {हवाला :इरफाने हिदायत , पेज 9}

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