Muharram Aur Taziyadari part:2/मुहर्रम और ताज़ियादारी
Muharram Aur Taziyadari part:2/मुहर्रम और ताज़ियादारी |
Muharram Aur Taziyadari से मुतल्लिक जानने से पहले आइए पहले यह पढ़ें!इस्लामी तारीख़ शहादतों से भारी पड़ी है। कोई दिन ऐसा नहीं जिसमे किसी साहबी की शहादत न हुई हो। जैसे की "उमर फ़ारूक़" (रज़ीअल्लाहु अन्हु) की शहादत का वक़िया। अगर बाद में होने वाली इन शहादतों के मनाने की शरएन कोई हैसियत होती तो हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ीअल्लाहु अन्हु की शहादत इस लायक़ थी की अहले इस्लाम इसका ऐतबार करते। हज़रत उस्मान रज़ीअल्लाहु अन्हु की शहादत ऐसी थी की इसकी यादगर मनाई जाती। फ़िर इन शहादतो की बिना पर अगर इस्लाम में मातम की इजाज़त होती तो यक़ीनन तारीख़-ए-इस्लाम की ये दोनो शहादतेन ऐसी थी की अहले इस्लाम इन पर जितना भी मातम करता कम होता।
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मुहर्रम का महीना क़ाबिल-ए अहम क्यूं है ?
हसन या हुसैन (रज़ि अल्लाहु अन्हु) की शहादत का वक़िया तो नबी करीम ﷺ की वफ़ात से 50 साल बाद पेश आया ! इस महीने की हुरमत सैय्यदना हज़रत हुसैन रज़ीअल्लाहु अन्हु के वक़िया-ए-शहादत से पहले ही चली आ राही है। जैसा की ऊपर वज़ाहत गुज़री। बाज़ लोग ये समझते हैं की ये महीना इसलिये क़ाबिल-ए अहम है कि इसमे हज़रत हुसैन रज़ीअल्लाहु अन्हु की शहादत का वक़िया पेश आया था। ये ख़्याल बिल्कुल ग़लत है। ये शहादत का वाक़िया तो नबी करीम ﷺ की वफ़ात से 50 साल बाद पेश आया और दीन की तकमील नबी करीम की ज़िंदगी में कर दी गई थी। अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला ने पहले ही नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हयात में ही क़ुरान में इसकी हुरमत बयान कर दी है !
(देखिए सूरह मायदा, आयत नं - 3)
मुहर्रम-उल-हराम की चंद ख़सूसियात
मुहर्रम को अल्लाह का महीना क़रार दिया गया (सही मुस्लिम : 1163)
कायनात बनते ही अल्लाह तआला ने मुहर्रम को हुरमत वाले चार महीनो मे से एक कर दिया (सुरह अत-तौबा : 36)
मुहर्रम की 10 तारीख़ को अल्लाह तआला ने सैय्यदना मूसा अलैहिस्सलाम और उनकी क़ौम को फ़िरौन की क़ौम से निजात अता फ़रमाई, चुनांचे ये दिन क़ौम मूसा का निजात और यौम आज़ादी है (सुनन इब्ने माजाह : 1734)
रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने 9 मुहर्रम के रोज़ा रखने का भी अज़म फ़रमाया मगर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात हो गई (सही मुस्लिम : 1134)
अशूरा यानी 10 मुहर्रम के सिर्फ़ एक रोज़े से पूरे साल के गुनाह माफ़ हो जाते हैं (सही बुख़ारी : 2006)
रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को रमज़ान के बाद सबसे ज़्यादा मुहर्रम के रोज़े रखना पसंद था (सही मुस्लिम : 1163)
सैय्यदना उमर रज़ियल्लाहू अन्हु ने इस्लामी तक़वीम का आगाज़ फ़रमाया तो नये इस्लामी साल का आगाज़ भी इसी मुहर्रम के महीने से हुआ।
इसी माह मुक़द्दस की 10 तारीख़ को जन्नती नौजवानो के सरदार सैय्यदना हुसैन रज़ीअल्लाहु अन्हु की शहादत हुई।
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मुहर्रम-उल-हराम को आज शिर्क और बिदअत का महीना बना दिया
जिधर निकल जाओ नोहे और मर्सिए पढ़े जा रहे हैं, हर दूसरे घर में सोग मनाया जा रहा है, हाय हुसैन की आहो बाक़ा है,
कोई घर में बीबी फ़ातिमा की कहानी पढ़वा रहा है है
कोई बीबी ज़ैनब की कहानी पढ़वा रहा है,
एक तरफ़ मक्कारी औेर ढोंग के आँसू हैं और दूसरी तरफ़ मिठाई की दुकाने सजी हुई हैं,
एक तरफ़ सीनों से और पीठो को मारा जा रहा है तो दूसरी तरफ़ फ़कीर, पाइकी, अलम और ताज़िये बनाये जा रहे हैं,
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हर तरफ़ अजीब हाल है आज उम्मत का
वो जो करता है उन्हे करने दो मुसलमानो, ये तो उन ख़बीसो और ग़लीज़ो पर अज़ाब है अल्लाह का जो क़यामत तक जारी रहेगा, ये ऐसे ही अपना सीना पीटते रहेंगे क्योंकि इसी सीने में अम्मा आयशा रज़ि अल्लाहू अन्हा का बुग़्ज़ भरा है, हज़रत अबू बक्र रज़ि अल्लाहू अन्हु का बुग़्ज़ भरा है, हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ीअल्लाहु अन्हु का बुग़्ज़ भरा है, हज़रत उस्मान-ए-ग़नी रज़ीअल्लाहु अन्हु का बुग़्ज़ भरा है, और तमाम सहाबा रज़ियल्लाहू अन्हुमा का बुग़्ज़ भरा हुआ है और सरो को इसलिय काटते हैं की इसी दिमाग़ में हज़रत हुसैन (रज़ि अल्लाहु अन्हु) को शहीद करने और अहले बैत को बदनाम करने की साज़िशें बहारी हुई हैं।
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बच्चों को फ़कीर बनाना:-
ये फ़कीर बनने का सिस्टम ही नही समझ मै आया आजतक ये फ़कीर क्यू बनाये जाते हैं बच्चे, अगर एक फ़कीर का बच्चा आ जाये तो बड़ी हिकारत से देखते है लेकिन इन दस दिनों मैं तो बड़े बड़े अमीर और हैसियत, शौहरत और पैसे वाले अपने बच्चों को फ़कीर बनाते हैं ये फकीरी का तो पेशा हराम है इस्लाम मैं फ़िर ये कैसे आया इस मुक़द्दस महीने मैं?पाइकी बांधना:-
कुछ मुसलमान कमर में रस्सियाँ बांधे और घंटियां लटकाए बस दौड़ते रहते हैं नंगे पैर, कोई इधर भागा जा रहा है, कोई उधर भागा जा रहा है, कुछ ग्रुप बनाकर यहां दौड़ते है कुछ वहाँ दौड़ते हैं, आजकल तो मॉडर्न हो गए तो बाइक्स पर 3 - 3 और 4 - 4 बैठे कर्तब दिखाते हुए निकलते हैं, सुबह से लेकर शाम तक सिर्फ़ दौड़ना और सिर्फ़ दौड़ना ही है, न नमाज़ की फ़िक्र होती है और न सुन्नतो की, फ़रज़ियात का कहीं नाम नही, सुन्नतो का जनाज़ा निकले हुए बस भाग रहे हैं।अल्लाह जाने ये दीन के लिए भाग रहे हैं या दीन से भाग रहे हैं। ये भी कहीं से सबित नहीं है नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से तो मुमकिन ही नही है और सहाबा रज़ियल्लाहू अन्हु ने कभी किया नही ना ताबईंन से ना तबाअ-ताबईन से, ना किसी औलिया अल्लाह से, फ़िर ये कहा से आया?
ताज़ियादारी और अलम
इसकी शुरूवात तैमूर लंग के ज़माने में हुई और नूर जहां के ज़माने में परवान चढ़ी चुकीं तैमूर लंगड़ा था इसलिये वो ईरान जा नहीं सकता था इस ज़लालत के लिए उसने यहीं ये सब कुछ बनवा शुरू कर दिया।यही इतिहास हमे नूर जहां के बारे मैं भी मिलता है की वो ईरान की रहने वाली थी और यहां पर जहांगीर से शादी हुई तो ईरान ना जा सकने की वजह से उसने कुछ ईरानीयो को यही बुला लिया और ये ज़लालत वाले काम यही शूरु कर दिए और आज का मुस्लमान इसे सवाब का दर्जा देता है
अस्तग़फ़िरुल्लाह
ये सरापा बिद्दत और शिर्क में मुलव्विस होने वाले काम हैं। बरेलवी फ़िकरे मकतब के कुछ लोग इसमे कुछ ज़्यादा ही मुलव्विस हैं लेकिन शायद उनहे ये नहीं पता है कि उनके फ़िरक़े की इब्तदा करने वाले इमाम अहमद रज़ा साहब ने अपनी किताब फ़तवा-ए-रिज़विया में फ़तवा दिया है
"तज़िया देखने वाला, बनाने वाला और इस्तेमाल करने वाला कुफ्र का मुर्तक़िब है"
इसलिय मेरी बरेलवी हज़रात से ग़ुज़ारिश है की इन ग़लीज़ और बदतरीन बिद्दत से बचें और हज़रत हुसैन रज़ीअल्लाहु अन्हु की शहादत का असल मक़सद समझे।
कुछ मुसलमान मुहर्रमुल हराम की 10 तारीख़ को बहुत सोग वाला दिन, काला दिन या मनहूस दिन मानते हैं लिहाज़ा उन्हे बताना चाहता हूं की
इस दिन हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की उम्मत को फ़िरौन से निजात मिली और फ़िरौन अपनी क़ौम के साथ गर्क़ हुआ।
इस दिन को अगर कोई मनहूस या सोग वाला या ख़राब दिन कहे तो मोमिन नहीं हो सकता है और इसमे कोई शक़ ना होगा कि वो शख़्स दुश्मन-ए-इस्लाम होगा।
नीचे कुछ हदीस-ए-पाक भी दे रहा हूं मुलाहिज़ा फ़रमाये...
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हदीस है जिसका मफहूम है कि
"जो अपने गिरेबान को चाक करे, मुंंह पीटे, और ज़माना-ए-जहिलियत वाली बाते करे वो हम मैं से नहीं "... (सहीह अल बुख़ारी)
अल्लाह हम तमाम मोमिनीन को इस पाक महीने का तक़द्दुस बरक़रार रखने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये, इसमे होने वाले तमाम शिर्क और बिद्दत से हमारी हिफ़ाज़त फ़रमाये, आमीन।
कैसे हुई ताजियों की शुरुआत
इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ-सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं।
भारत में ताजिए के इतिहास और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया।
फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था।
तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था।
बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया।
कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से 'कब्र' या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया।
तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई।
खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है।
Note: जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही।
तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा। मुगल बादशाह हुमायूं ने सन् नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46 तौला के जमुर्रद (पन्ना/ हरित मणि) का बना ताजिया मंगवाया था।
कुल मिलकर ताज़िया का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ ही नही है....लेकिन हमारे भाई बेहेन जो ना इल्म है और इस काम को सवाब समझ कर करते है उन्हें हक़ीक़त बताना भी हमारा ही काम है! अब वो समझें या न समझें !
भारत में ताजिए के इतिहास और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया।
फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था।
तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था।
बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया।
कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से 'कब्र' या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया।
तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई।
खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है।
Note: जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही।
तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा। मुगल बादशाह हुमायूं ने सन् नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46 तौला के जमुर्रद (पन्ना/ हरित मणि) का बना ताजिया मंगवाया था।
कुल मिलकर ताज़िया का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ ही नही है....लेकिन हमारे भाई बेहेन जो ना इल्म है और इस काम को सवाब समझ कर करते है उन्हें हक़ीक़त बताना भी हमारा ही काम है! अब वो समझें या न समझें !
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हजरत सय्यिदना अब्दुल कादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैह का फ़तवा:-
अगर इमाम हुसैन रज़ि० की शहादत के दिन को ग़म का दिन मान लिया जाए तो पीर का दिन उससे भी ज्यादा ग़म करने का दिन हुआ क्यूंकि रसूले खुदा सल्ल० की वफात उसी दिन हुई है!{हवाला : गुन्यतुत्तालिबीन , पेज 454}
शाह अब्दुल मुहद्दिस देहलवी रहमतुल्लाह अलैह का फ़तवा:-
मुहर्रम में ताजिया बनाना और बनावटी कब्रें बनाना, उन पर मन्नतें चढ़ाना और रबीउस्सानी, मेहंदी, रौशनी करना और उस पर मन्नतें चढ़ाना शिर्क है!
{हवाला : फतावा अज़ीज़िया हिस्सा 1, पेज 147}
हज़रत मौलाना अशरफ़ अली थानवी रहमतुल्लाह अलैह का ब्यान
ताजिये की ताजीम करना, उस पर चढ़ावा चढ़ाना, उस पर अर्जियां लटकाना, मर्सिया पढना, रोना चिल्लाना, सोग और मातम करना अपने बच्चों को फ़क़ीर बनाना ये सब बातें बिदअत और गुनाह की है!
{हवाला : बहिश्ती ज़ेवर , हिस्सा 6 , पेज 450 }
हज़रत मौलाना अहमद रज़ा खां साहब बरेलवी का फ़तवा
हज़रत मौलाना मुहम्मद इरफ़ान रिज्वी साहिब बरेलवी का फ़तवा!
ताजिया बनाना और उस पर फूल हार चढ़ाना वगेरह सब नाजायज और हराम है!
{हवाला :इरफाने हिदायत , पेज 9}
हज़रत मौलाना अमजद अली रिज्वी साहिब बरेलवी का फ़तवा!
अलम और ताजिया बनाने और पीक बनने और मुहर्रम में बच्चों को फ़क़ीर बनाना बद्दी पहनाना और मर्सिये की मज्लिस करना और ताजियों पर नियाज़ दिलाने वगैरह खुराफ़ात है उसकी मन्नत सख्त जहालत है ऐसी मन्नत अगर मानी हो तो पूरी ना करें!
{ हवाला : बहारे शरियत , हिस्सा 9, पेज 35 , मन्नत का बयान }
ताजियादारी आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी की नज़र में!
ये ममनूअ् है, शरीअत में इसकी कुछ असल नहीं और जो कुछ बिदअत इसके साथ की जाती है सख्त नाजायज है, ताजियादारी में ढोल बजाना हराम है!
{हवाला : फतावा रिजविया , पेज 189, जिल्द 1, बहवाला खुताबते मुहर्रम }
कूछ हवाले और फतवे ओलमा किराम के
अगर इमाम हुसैन रज़ि० की शहादत के दिन को ग़म का दिन मान लिया जाए तो पीर का दिन उससे भी ज्यादा ग़म करने का दिन हुआ क्यूंकि रसूले खुदा सल्ल० की वफात उसी दिन हुई है!{हवाला : गुन्यतुत्तालिबीन , पेज 454}
शाह अब्दुल मुहद्दिस देहलवी रहमतुल्लाह अलैह का फ़तवा:-
मुहर्रम में ताजिया बनाना और बनावटी कब्रें बनाना, उन पर मन्नतें चढ़ाना और रबीउस्सानी, मेहंदी, रौशनी करना और उस पर मन्नतें चढ़ाना शिर्क है!
{हवाला : फतावा अज़ीज़िया हिस्सा 1, पेज 147}
हज़रत मौलाना अशरफ़ अली थानवी रहमतुल्लाह अलैह का ब्यान
ताजिये की ताजीम करना, उस पर चढ़ावा चढ़ाना, उस पर अर्जियां लटकाना, मर्सिया पढना, रोना चिल्लाना, सोग और मातम करना अपने बच्चों को फ़क़ीर बनाना ये सब बातें बिदअत और गुनाह की है!
{हवाला : बहिश्ती ज़ेवर , हिस्सा 6 , पेज 450 }
हज़रत मौलाना अहमद रज़ा खां साहब बरेलवी का फ़तवा
1- अलम, ताजिया, अबरीक, मेहंदी, जैसे तरीके जारी करना बिदअत है, बिदअत से इस्लाम की शान नहीं बढती, ताजिया को हाजत पूरी करने वाला मानना जहालत है, उसकी मन्नत मानना बेवकूफी,और ना करने पर नुकसान होगा ऐसा समझना वहम है, मुसलमानों को ऐसी हरकत से बचना चाहिये! {हवाला : रिसाला मुहर्रम व ताजियादारी, पेज 59}
2. ताजिया आता देख मुहं मोड़ ले , उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहिये!
{हवाला : इर्फाने शरीअत, पहला भाग पेज 15}
3. ताजिये पर चढ़ा हुआ खाना न खाये, अगर नियाज़ देकर चढ़ाये या चढ़ाकर नियाज़ दे तो भी उस खाने को ना खाए उससे परहेज करें!
{हवाला : पत्रिका ताजियादारी ,पेज 11}
मसला : किसी ने पूछा हज़रत क्या फरमाते हैं?इन अमल के बारे में:-
सवाल 1- कुछ लोग मुहर्रम के दिनों में न तो दिन भर रोटी पकाते है और न झाड़ू देते है , कहते है दफ़न के बाद रोटी पकाई जाएगी!
सवाल 2- मुहर्रम के दस दिन तक कपड़े नहीं उतारते!
सवाल 3- माहे मुहर्रम में शादी नहीं करते!
अलजवाब:- तीनों बातें सोग की है और सोग हराम है
{हवाला : अहकामे शरियत ,पहला भाग, पेज 171}
हज़रत मौलाना मुहम्मद इरफ़ान रिज्वी साहिब बरेलवी का फ़तवा!
ताजिया बनाना और उस पर फूल हार चढ़ाना वगेरह सब नाजायज और हराम है!
{हवाला :इरफाने हिदायत , पेज 9}
हज़रत मौलाना अमजद अली रिज्वी साहिब बरेलवी का फ़तवा!
अलम और ताजिया बनाने और पीक बनने और मुहर्रम में बच्चों को फ़क़ीर बनाना बद्दी पहनाना और मर्सिये की मज्लिस करना और ताजियों पर नियाज़ दिलाने वगैरह खुराफ़ात है उसकी मन्नत सख्त जहालत है ऐसी मन्नत अगर मानी हो तो पूरी ना करें!
{ हवाला : बहारे शरियत , हिस्सा 9, पेज 35 , मन्नत का बयान }
ताजियादारी आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा बरेलवी की नज़र में!
ये ममनूअ् है, शरीअत में इसकी कुछ असल नहीं और जो कुछ बिदअत इसके साथ की जाती है सख्त नाजायज है, ताजियादारी में ढोल बजाना हराम है!
{हवाला : फतावा रिजविया , पेज 189, जिल्द 1, बहवाला खुताबते मुहर्रम }
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Conclusion:
उपर दिए गए दलाईल और उल्मा ए कराम के फतवे से यह साफ तौर पर जाहिर होता है की आज कल Muharram Aur Taziyadari करके मुहर्रम-उल-हराम जैसे हुर्मत वाले महीने को भी शिर्क और बिदअत और खुराफात का महीना बना दिया गया है! ताजियादारी का इस्लाम से कुछ लेना देना नही है ! यह दीन नही बल्कि बाद की इजाद की गई एक बिदअत है !
क्या अब भी हमारे मुसलमान भाई ताजिया के जुलूस जैसी खुराफात से बचने की कोशिस नही करेंगे?जिस दिन वो अल्लाह के हुज़ूर पेश किए जायेंगे तो क्या जवाब देंगे! अल्लाह की नही तो कम से कम अपने उल्मा और इमाम की ही सुन लें और इस बिदअत और खुराफात जो इमाम हसन और हुसैन अलैहे सलाम के नाम पर करते हैं इस से खुद बचें और दूसरों को बचाएं!
अल्लाह सुबहा़न व तआ़ला से दुआ है की हम सभी को सहीह दीन पर चलने और समझने से जयादह अमल करने की तौफीक अता फरमाए! आमीन या रब
FAQs:
Que: मुहर्रम में ताजिया जुलूस क्यों निकले जाते हैं?
Ans: मैदान ए करबला में शहीद हुए इमाम हुसैन की याद में ताज़िया और जुलुस निकलते है ! ये बहुत ही गलत और बे बुनियाद रिवाज़ है इसका इस्लाम से दूर दूर तक कोई नाता नहीं और ये सब शिया समुदाय के लोग करते है और शिया असल में मुसलमान कहलाने के काबिल नही! इसके अलावा कुछ जाहील सुन्नी हैं जो इस अमल को करते हैं! याद रहे की जो काम इस्लाम के विरुद्ध होगा वो दीन का हिस्सा नहीं बल्कि बिदत है !
Que: इस्लाम में मुहर्रम का क्या महत्व है?
Ans: इस्लाम में माह ए मुहर्रम की बहुत बड़ी फजीलत और अहमियत है ! लेकिन इस महीने में की जाने वाले खुराफात ताजियादारी, जुलूस झंडे और मातम का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ नही है !
Que: दुनिया में सबसे पहला ताजिया किसने बनाया था?
Ans: इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ-सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं।
Que: इस्लाम साल का पहला महीना क्या है ?
Ans: मुहर्रमुल हराम इस्लामी साल का पहला महीना है !
Que: ताज़िया बनाना कैसा है ?
Ans: हज़रत मौलाना मुहम्मद इरफ़ान रिज्वी साहिब बरेलवी का फ़तवा है की ताजिया बनाना और उस पर फूल हार चढ़ाना वगेरह सब नाजायज और हराम है!
{हवाला :इरफाने हिदायत , पेज 9}
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