Namaz me Qayam Karna /नमाज़ में क़याम करना
रसूलुल्लाह (ﷺ) का हुक्म है :"मुझे जिस तरह नमाज़ पढ़ते देखते हो तुम भी उसी तरह नमाज़ पढ़ो"(सही बुख़ारी : 631)
हज़रत अबु हुरेरा रज़ि० रिवायत करते हैं कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:“पांच नमाज़ें, उन गुनाहों को जो उन नमाज़ों के दर्मियान हुये, मिटा देती हैं। और (इसी तरह) एक जुम्अ: से दूसरे जुम्अः तक के गुनाहों को मिटा देता है, जबकि बड़े गुनाहों से बच रहा हो।"(मुस्लिम : 233)
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:"आदमी और शिर्क के दर्मियान नमाज़ ही रुकावट है।"(मुस्लिम : 82)
क़याम की अहमियत:
Namaz me Qayam Karna यानी नमाज़ के शुरुवात में पहली तकबीर के बाद खड़े होना नमाज़ के फराईज़ में से है। किब्ला के तरफ़ रुख करके खड़ा होना है ! दोनों पांव के दरम्यान ज्यादा फासला न हो और न ही ज्यादा नज़दीक हो ! निगाहें सज्दे की जगह हो! तो आईए देखें क़ुरआन और हदीस में क़याम से मुतल्लिक क्या कहा गया है !
क़ुरआन में क़याम का हुक्म
क़ुरआन मजीद में अल्लाह तआला फरमाते हैं:
"حَافِظُوا عَلَى الصَّلَوَاتِ وَالصَّلَاةِ الْوُسْطَىٰ وَقُومُوا لِلَّهِ قَانِتِينَ" (अल बकरह: 238)
तरजुमा: "नमाज़ों की हिफ़ाज़त करो, खासकर दरमियानी नमाज़ की, और अल्लाह के लिए अदब से खड़े हो जाओ।"
इस आयत में अल्लाह तआला ने नमाज़ में खड़े होकर इबादत करने का हुक्म दिया है, जिससे क़याम की अहमियत वाज़ेह होती है।
हदीस में क़याम का हुक्म
रसूलुल्लाह ﷺ ने भी नमाज़ में क़याम को ज़रूरी करार दिया है। हज़रत इम्रान बिन हुसैन रज़ि० बयान फ़रमाते हैं कि मुझे बवासीर की तकलीफ़ थी, तो नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"صلِّ قائمًا، فإن لم تستطع فقاعدًا، فإن لم تستطع فعلى جنب"
(सही बुख़ारी : 1117)
तरजुमा:"(अगर हो सके तो) खड़े हो कर नमाज अदा करो, अगर ताक़त न हो, तो बैठ कर। अगर बैठ कर भी अदा करने की ताक़त न हो तो लेट कर, (नमाज़ अदा करो)
इससे मालूम हुआ कि ताकत रखने के बावजूद बैठ कर नमाज अदा करना जाइज़ नहीं है। और यह कुरआन के भी खिलाफ है इसलिये कि कुरआन कहता है "अल्लाह के लिये अदब के साथ खड़े हुआ करो" (सूर: बकरा: 2/238)
बैठ कर नमाज़ पढ़ना
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने देखा कि कुछ लोग बैठ कर नमाज अदा कर रहे हैं तो आप ने फरमायाः
"बैठ कर नमाज अदा करने वाले को खड़े होकर नमाज़ अदा करने वालों के मुकाबले में आधा सवाब मिलेगा।"
[इब्ने माजा - इकामतिस्सलात, हदीस न0 1230]
हाफिज़ बूसीरी ने इसे सहीह कहा है इस हदीस से मालूम हुआ कि किसी जाइज़ मजबूरी के बगैर बैठ कर नफ़्ल या सुन्नतें अदा करने से आधा सवाब मिलता है।
इस हदीस से मालूम होता है कि क़याम फ़र्ज़ है, लेकिन अगर किसी इंसान को मजबूरी हो तो उसे बैठकर या पहलू के बल नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दी गई है।
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क़याम में दो सकते( थोड़ी देर ठहरना):
हज़रत समुरा-बिन-जुन्दुब (रज़ि०) से रिवायत है कि उन्होंने रसूलुल्लाह ﷺ से दो सकते याद किये एक सकता जब आप ﷺ तकबीर तहरीमा कहते और एक सकता जब आप ﷺ (غیر المغضوب علیھم ولا الضالین) की क़िरअत से फ़ारिग़ होते
(मिश्कात अलमसाबीह:818)
Note: सूरह फातिहा हर नमाज़ और रिकात में पढ़ना ज़रूरी है लिहाज़ा ! इन्ही दो सक्तों के दरमायन सुराह फातिहा पढ़ लेना चाहिए ! लिहाज़ा ! इमाम को चाहिए कि सुरा फातिहा से पहले या सुरा फातिहा के बाद कुछ देर ठहर जाए ताकि मुक्तदी सुरा फातिहा पढ़ ले !अब तकबीर ए तहरीमा के बाद किरात यानी सुरह फातिहा और कोई सुरा पढ़ना ज़रूरी है !
क़िरात की अहमियत
तकबीर ए तहरीमा के बाद दोनो हाथों को सीने पर रखने हैं और उसके बाद सना, ताऊज़ और तस्मीया पढ़ने के बाद किरात का सिलसिला शुरू होता है !
क़िरात यानी नमाज़ में क़ुरआन मजीद की तिलावत करना एक अहम हिस्सा है। नमाज़ में क़िरात का मक़सद अल्लाह के कलाम को पढ़ना ,सुनना और समझना होता है।
क़ुरआन में क़िरात से मुतल्लिक
अल्लाह तआला क़ुरआन में फरमाते हैं:
"فَاقْرَءُوا مَا تَيَسَّرَ مِنَ الْقُرْآنِ" (अल मुज़म्मिल: 20)
तरजुमा: "तो क़ुरआन में से जो आसानी से हो, पढ़ो।"
इस आयत से मालूम होता है कि नमाज़ में क़ुरआन की तिलावत एक अहम अमल है। तिलावत का मक़सद अल्लाह के कलाम को पढ़कर उस पर गौर करना और उससे हिदायत हासिल करना है।
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हदीस में क़िरात से मुतल्लिक
रसूलुल्लाह ﷺ ने क़िरात की खास एहमियत बयान की है। हज़रत उबादा बिन सामित (रज़ि.) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फरमाया:
"لا صلاة لمن لم يقرأ بفاتحة الكتاب"
(सहीह अल-बुखारी व सहीह मुस्लिम)
तरजुमा: "उसकी नमाज़ नहीं, जिसने सूरह फातिहा नहीं पढ़ी।"
सूरह फातिहा का नमाज़ में पढ़ना फ़र्ज़ है, और इसके बिना नमाज़ मुकम्मल नहीं होती। रसूलुल्लाह ﷺ की हदीस से ये साबित होता है कि सूरह फातिहा के बाद किसी और सूरह की भी तिलावत करना ज़रूरी है, खासकर फ़र्ज़ नमाज़ की पहली दो रकअतों में।
आप ﷺ फज्र की नमाज़ में और मगरिब और ईशा की नमाज़ की पहली दो रकअतों में बुलंद आवाज़ से क़िरात करते थे। बाकी में आहिस्ता [यानी बे-आवाज़] क़िरत करते थे।
फज्र की दलील: सही बुखारी: 773.
मगरिब की दलील: सही बुखारी: 763-764.
ईशा की दलील: सही बुखारी: 766-767]
क़याम और क़िरात का ताल्लुक़:
नमाज़ में क़याम और क़िरात आपस में गहरा रिश्ता रखते हैं। क़याम के दौरान क़ुरआन की तिलावत करना फ़र्ज़ है। नमाज़ की हर रकअत में सूरह फातिहा का पढ़ना ज़रूरी है और पहली दो रकअतों में इसके बाद किसी दूसरी सूरह की तिलावत की जाती है। नफिल नमाज़ के हर रकअत में सूरह फतिहा के साथ और कोई सूरह पढ़ना चाहिए!
नफ़्ल नमाज़ और क़िरात:
नफ़्ल नमाज़ों में भी क़याम और क़िरात का एहतमाम किया जाता है। हालांकि, अगर कोई शख्स नफ़्ल नमाज़ बैठकर पढ़ना चाहे अगर खड़े हो कर पढ़ने के काबिल न हो तो उसे इसकी इजाज़त है, लेकिन क़याम और क़िरात का यही तरीक़ा नफ़्ल और फ़र्ज़ दोनों में लागू होता है।
Note: कुछ लोगों को , लोगों को क्या बच्चों और जवानों को भी देखा गया है की अक्सर वो नफ़्ल नमाज़ बैठ कर ही पढ़ते हैं वो सोचते हैं की ये सुन्नत है जबकि ऐसा नहीं है वो इस हदीस से पता चलता है !
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र (रज़ि०) बयान करते हैं कि मुझे किसी ने बताया कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : आदमी का बैठकर नमाज़ पढ़ना आधी नमाज़ की तरह है। वो बयान करते हैं कि में आप की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। तो मैंने आप को बैठ कर नमाज़ पढ़ते हुए पाया तो मैंने अपना हाथ आप के सिर पर रख दिया आप ﷺ ने फ़रमाया : अब्दुल्लाह-बिन-अम्र ! तुम्हें क्या हुआ? मैंने कहा : अल्लाह के रसूल! मुझे बताया गया कि आप ﷺ ने फ़रमाया है : आदमी का बैठ कर नमाज़ पढ़ना आधी नमाज़ की तरह है। जब कि आप बैठ कर नमाज़ पढ़ रहे हैं। आप ﷺ ने फ़रमाया : ठीक है। लेकिन में तुममें से किसी की तरह नहीं हूँ। (मुस्लिम:1715, मिश्कात:1252)
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नमाज़ में तवज्जोह और ख़ुशू की अहमियत
नमाज़ में क़याम और क़िरात के दौरान ख़ुशू (अल्लाह के आगे झुकने और उसकी तरफ़ पूरी तवज्जोह रखने की हालत) बहुत जरूरी है। क़ुरआन मजीद में फरमाया गया:
"قَدْ أَفْلَحَ الْمُؤْمِنُونَ * الَّذِينَ هُمْ فِي صَلَاتِهِمْ خَاشِعُونَ" (المؤمنون: 1-2)
तरजुमा:"यक़ीनन मोमिन कामयाब हो गए, जो अपनी नमाज़ में ख़ुशू इख्तियार करते हैं।"
ख़ुशू का मतलब है कि इंसान अल्लाह के सामने पूरी अज़मत और अदब के साथ खड़ा हो और उसकी तिलावत पर गौर व फिक्र करे और नमाज़ के हर रूक्न को अच्छी तरह अदा करे !
और जो नमाज़ में तवज्जोह नही देते हैं उनके लिए अल्लाह का फ़रमान:फ़िर बड़ी खराबी है उन नमाज़ पढ़ने वालों की जो अपनी नमाज़ से गफलत बरत्ते हैं जो दिखावा करते हैं ! (सूरह अल माऊन: 4,5,6)
Conclusion:
Namaz me Qayam Karna और क़िरात दोनों इबादत के अहम अरकान हैं। क़ुरआन और हदीस की रौशनी में क़याम का मतलब अल्लाह के आगे अदब से खड़े होकर इबादत करना है, और क़िरात का मक़सद क़ायाम के दौरान क़ुरआन की तिलावत के ज़रिए अल्लाह के कलाम को पढ़ना,सुनना और समझना है। इन दोनों अरकान में ख़ुशू और अदब का होना बहुत ज़रूरी है ताकि इंसान अल्लाह से अपने रिश्ते को और मज़बूत बना सके और उसकी नमाज़ को मकबुलियत का शरफ हासिल हो !
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نماز میں قیام اور قرات:
نماز اسلام کا دوسرا بنیادی رکن ہے اور بندے اور خدا کے درمیان ایک قریبی رابطے کا ذریعہ ہے۔ نماز کے مختلف ارکان اور ان کی اہمیت کے حوالے سے قرآن مجید اور حدیث میں کئی ہدایات موجود ہیں۔ قیام اور قرات نماز کے بنیادی اجزاء میں سے ہیں، جن پر قرآن اور سنت میں خاص زور دیا گیا ہے۔Namaz me Qayam Karna یعنی نماز کے دوران تکبیر کے بعد کھڑے ہونا.
کھڑے ہو کر اللہ کی عبادت کرنا فرض ہے۔ اس کی بنیاد قرآن و سنت میں ملتی ہے۔
نماز میں قیام اور قرات:
اللہ تعالیٰ قرآن مجید میں ارشاد فرماتے ہیں:"حَافِظُوا عَلَى الصَّلَوَاتِ وَالصَّلَاةِ الْوُسْطَىٰ وَقُومُوا لِلَّهِ قَانِتِينَ"(البقرہ: 238)
ترجمہ: "نمازوں کی حفاظت کرو، بالخصوص درمیانی نماز کی، اور اللہ کے حضور خشوع کے ساتھ کھڑے ہو جاؤ۔"یہ آیت قیام کی اہمیت کو واضح کرتی ہے کہ نماز میں کھڑے ہو کر اللہ کے سامنے عاجزی اور خشوع کے ساتھ کھڑا ہونا ضروری ہے۔
رسول اللہ ﷺ نے نماز میں قیام کے فرض ہونے کی تعلیم دی ہے۔ حضرت عمران بن حسینؓ سے مروی ہے کہ رسول اللہ ﷺ نے فرمایا:"صلِّ قائمًا، فإن لم تستطع فقاعدًا، فإن لم تستطع فعلى جنب"(صحیح البخاری)
ترجمہ: "نماز کھڑے ہو کر پڑھو، اگر نہ کر سکو تو بیٹھ کر پڑھو، اور اگر اس کی بھی استطاعت نہ ہو تو پہلو کے بل پڑھو۔"اس حدیث سے واضح ہوتا ہے کہ قیام فرض ہے، مگر اگر کوئی شخص کسی عذر کی بنا پر قیام نہیں کر سکتا تو اسے بیٹھ کر یا پہلو کے بل نماز پڑھنے کی اجازت ہے۔
اس کے بعد قرات کرنا یعنی نماز میں قرآن کی تلاوت کرنا نماز کا ایک لازمی حصہ ہے۔ نماز میں سورۃ الفاتحہ اور دیگر سورتوں کی تلاوت کی جاتی ہے۔
قرآن مجید میں اللہ تعالیٰ کا ارشاد ہے:"فَاقْرَءُوا مَا تَيَسَّرَ مِنَ الْقُرْآنِ"(المزمل: 20)
ترجمہ: "پس قرآن میں سے جو تمہارے لیے آسان ہو، پڑھ لو۔"یہ آیت نماز میں قرآن کی تلاوت کی عمومی اہمیت کو واضح کرتی ہے۔ نماز میں قرات کا مقصد اللہ کے کلام کو سننا اور اس پر غور و فکر کرنا ہے۔
قرات کے حوالے سے رسول اللہ ﷺ کی ہدایات نہایت واضح ہیں۔ حضرت عبادہ بن صامتؓ سے مروی ہے کہ رسول اللہ ﷺ نے فرمایا:"لا صلاة لمن لم يقرأ بفاتحة الكتاب"(صحیح بخاری و مسلم)
ترجمہ: "اس کی نماز نہیں جس نے سورۃ الفاتحہ نہ پڑھی۔"سورۃ الفاتحہ کو نماز میں پڑھنا فرض ہے، اور یہ ہر رکعت میں پڑھنی ضروری ہے۔ دیگر سورتوں کی تلاوت کا حکم سنت کے مطابق ہے، اور عام طور پر پہلی دو رکعتوں میں سورۃ الفاتحہ کے بعد کوئی اور سورۃ پڑھی جاتی ہے۔
بیٹھ کر نماز پڑھنا
نبی کریم ﷺ نے دیکھا کہ کچھ لوگ بیٹھ کر نماز ادا کر رہے ہیں، تو آپ ﷺ نے فرمایا: "بیٹھ کر نماز ادا کرنے والے کو کھڑے ہوکر نماز ادا کرنے والوں کے مقابلے میں آدھا ثواب ملے گا۔" [ابن ماجہ - اقامت الصلاۃ، حدیث نمبر 1230]
حافظ بوصیری نے اس حدیث کو صحیح کہا ہے۔ اس حدیث سے معلوم ہوا کہ بغیر کسی جائز مجبوری کے بیٹھ کر نفل یا سنتیں ادا کرنے سے آدھا ثواب ملتا ہے۔
اس حدیث سے معلوم ہوتا ہے کہ قیام فرض ہے، لیکن اگر کسی انسان کو مجبوری ہو تو اسے بیٹھ کر یا پہلو کے بل نماز پڑھنے کی اجازت دی گئی ہے۔
قیام میں دو سکتہ (تھوڑی دیر ٹھہرنا):
حضرت سمرہ بن جندب (رضی اللہ عنہ) سے روایت ہے کہ انہوں نے رسول اللہ ﷺ سے دو سکتے یاد کیے۔ ایک سکتہ جب آپ ﷺ تکبیر تحریمہ کہتے اور ایک سکتہ جب آپ ﷺ "غیر المغضوب علیھم ولا الضالین" کی قرأت سے فارغ ہوتے۔ (مشکاة المصابیح: 818)
نوٹ: سورۃ فاتحہ ہر نماز اور رکعت میں پڑھنا ضروری ہے، لہٰذا انہی دو سکتوں کے درمیان سورۃ فاتحہ پڑھ لینی چاہیے۔ اب تکبیر تحریمہ کے بعد قرأت یعنی سورۃ فاتحہ اور کوئی سورۃ پڑھنا ضروری ہے۔
قیام اور قرات کا تعلق:
نماز میں قیام اور قرات ایک دوسرے سے جڑے ہوئے ہیں۔ نماز کے دوران قیام میں کھڑے ہو کر قرآن کی تلاوت کرنا ایک ضروری عمل ہے۔ رسول اللہ ﷺ کی سنت کے مطابق، پہلی دو رکعتوں میں سورۃ الفاتحہ کے بعد کسی اور سورت کی قرات کی جاتی ہے، جبکہ باقی رکعتوں میں صرف سورۃ الفاتحہ کی تلاوت کافی ہے۔نفل نماز اور قیام و قرات نفل نمازوں میں بھی قیام اور قرات کا اہتمام کیا جاتا ہے، البتہ نفل نمازوں میں قرات کے دوران لمبائی کا فرق ہو سکتا ہے۔ قیام اور قرات کا یہ اصول فرائض اور نوافل دونوں میں لاگو ہوتا ہے۔
قیام اور قرات میں خشوع کی اہمیت:
نماز میں قیام اور قرات کے دوران خشوع و خضوع کا ہونا انتہائی اہم ہے۔ اللہ تعالیٰ کا ارشاد ہے:"قَدْ أَفْلَحَ الْمُؤْمِنُونَ * الَّذِينَ هُمْ فِي صَلَاتِهِمْ خَاشِعُونَ"(المؤمنون: 1-2)
ترجمہ: "یقیناً ایمان والے کامیاب ہو گئے، جو اپنی نمازوں میں خشوع و خضوع اختیار کرتے ہیں۔"خشوع کا مطلب یہ ہے کہ نماز میں دل اور دماغ کو اللہ کی طرف متوجہ رکھا جائے اور اس کے حضور عاجزی کے ساتھ کھڑے ہوں۔
خلاصہ :نماز میں قیام اور قرات دونوں اہم ارکان ہیں جن کی ادائیگی فرض ہے۔ قرآن و حدیث کی روشنی میں یہ واضح ہوتا ہے کہ قیام اللہ کے حضور کھڑے ہو کر خشوع کے ساتھ عبادت کرنے کا حکم ہے، اور قرات میں قرآن کی تلاوت کا مقصد اللہ کے کلام کو سننا اور اس پر غور و فکر کرنا ہے تاکہ نماز اور عبادت کو قبولیت کا شرف حاصل ہو.
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FAQs:
क़याम का मतलब नमाज़ में खड़े होने की हालत है। नमाज़ में क़याम करना ज़रूरी है, और इसमें तकबीर ए तहरीमा के बाद सना, ताऊज और तस्मीयाः के बाद सूरह फ़ातिहा और क़ुरआन की दूसरी आयतें पढ़ी जाती हैं।
2. क़याम कब किया जाता है?
नमाज़ की शुरुआत में "तकबीर-ए-तहरीमा" के बाद क़याम किया जाता है। इसके बाद सूरह फ़ातिहा और किसी दूसरी सूरह या क़ुरआन की कुछ आयतें पढ़ी जाती हैं
3. क़िरात का क्या मतलब है?
क़िरात का मतलब है नमाज़ के दौरान क़ुरआन की तिलावत करना। क़याम की हालत में सूरह फ़ातिहा के बाद क़िरात की जाती है।
4. क़िरात में कौन-सी सूरह पढ़नी चाहिए?
सूरह फ़ातिहा के बाद किसी दूसरी सूरह या क़ुरआन की कुछ आयतें पढ़ी जा सकती हैं। मसलन, छोटी सूरहों में सूरह इख़लास, सूरह क़ौसर आदि पढ़ी जा सकती हैं।
5. क्या हर नमाज़ में क़िरात करना ज़रूरी है?
हां! हर नमाज़ में क़याम के दौरान सूरह फ़ातिहा के साथ क़िरात करना ज़रूरी है।
6. क्या सूरह फ़ातिहा के बिना नमाज़ मुकम्मल होती है?
नहीं, नमाज़ में हर रकअत में सूरह फ़ातिहा पढ़ना अनिवार्य है। इसे "उम्मुल किताब" भी कहा जाता है और इसके बिना नमाज़ मुकम्मल नहीं मानी जाती।
7. अगर किसी वजह से खड़े होकर क़याम न कर पाएं तो?
अगर कोई शारीरिक मजबूरी हो और खड़े होकर नमाज़ पढ़ना संभव न हो, तो बैठकर क़याम किया जा सकता है। ऐसे में नमाज़ के अन्य अरकान भी बैठकर किए जाते हैं।
2. क़याम कब किया जाता है?
नमाज़ की शुरुआत में "तकबीर-ए-तहरीमा" के बाद क़याम किया जाता है। इसके बाद सूरह फ़ातिहा और किसी दूसरी सूरह या क़ुरआन की कुछ आयतें पढ़ी जाती हैं
3. क़िरात का क्या मतलब है?
क़िरात का मतलब है नमाज़ के दौरान क़ुरआन की तिलावत करना। क़याम की हालत में सूरह फ़ातिहा के बाद क़िरात की जाती है।
4. क़िरात में कौन-सी सूरह पढ़नी चाहिए?
सूरह फ़ातिहा के बाद किसी दूसरी सूरह या क़ुरआन की कुछ आयतें पढ़ी जा सकती हैं। मसलन, छोटी सूरहों में सूरह इख़लास, सूरह क़ौसर आदि पढ़ी जा सकती हैं।
5. क्या हर नमाज़ में क़िरात करना ज़रूरी है?
हां! हर नमाज़ में क़याम के दौरान सूरह फ़ातिहा के साथ क़िरात करना ज़रूरी है।
6. क्या सूरह फ़ातिहा के बिना नमाज़ मुकम्मल होती है?
नहीं, नमाज़ में हर रकअत में सूरह फ़ातिहा पढ़ना अनिवार्य है। इसे "उम्मुल किताब" भी कहा जाता है और इसके बिना नमाज़ मुकम्मल नहीं मानी जाती।
7. अगर किसी वजह से खड़े होकर क़याम न कर पाएं तो?
अगर कोई शारीरिक मजबूरी हो और खड़े होकर नमाज़ पढ़ना संभव न हो, तो बैठकर क़याम किया जा सकता है। ऐसे में नमाज़ के अन्य अरकान भी बैठकर किए जाते हैं।
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