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Namaz ki Niyat/ नमाज़ की नियत

Namaz ki Niyat/ नमाज़ की नियत

Namaz ki Niyat/ नमाज़ की नियत
Namaz ki Niyat/ नमाज़ की नियत


Namaz ki Niyat (इरादा) नमाज़ शुरू करने से पहले दिल में यह पक्का इरादा करना होता है कि आप कौन सी नमाज़ पढ़ रहे हैं या किस अमल को अंजाम देने जा रहे हैं! इसका जुबान से इकरार करना ज़रूरी नही है और न ही किसी हदीस से साबित है ! हमारे यहां ज़ुबान से नियत अदा करने के जो तरीक़े राईज हैं वो बिदअ़त है किसी भी हदीस से ये साबित नही है तो ज़ुबान से पढ़ने का सवाल ही नहीं होता ! आईए हदीस की रोशनी में देखें !

    रसूलुल्लाह (ﷺ) का हुक्म है :"मुझे जिस तरह नमाज़ पढ़ते देखते हो तुम भी उसी तरह नमाज़ पढ़ो"(सही बुख़ारी : 631)
    हज़रत अबु हुरेरा रज़ि० रिवायत करते हैं कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:“पांच नमाज़ें, उन गुनाहों को जो उन नमाज़ों के दर्मियान हुये, मिटा देती हैं। और (इसी तरह) एक जुम्अ: से दूसरे जुम्अः तक के गुनाहों को मिटा देता है, जबकि बड़े गुनाहों से बच रहा हो।"(मुस्लिम : 233)
    आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया:"आदमी और शिर्क के दर्मियान नमाज़ ही रुकावट है।"(मुस्लिम : 82)

    नियत दिल के इरादे का नाम है 

    फुक़हा (इस्लामी विद्वानों) के अनुसार, नीयत का मतलब है: "किसी काम को करने का पक्का इरादा दिल में करना।" नीयत का असली स्थान दिल है और इसे ज़ुबान से बोलना यानी Namaz ki Niyat ज़रूरी नहीं है। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया:

    अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं

    ""अमल (काम) का आधार नीयत पर है, और हर इंसान को वही मिलेगा जिसकी उसने नीयत की।"(सहीह बुख़ारी, हदीस: 1, 54, 2529, 3898, 5070, 2520, 6689, 6953 + मुस्लिम - किताबुल इमारति, हदीस न० 1907]
    इस हदीस से साफ़ पता चलता है कि हर काम, जिसमें नमाज़ भी शामिल है, नीयत पर निर्भर करता है। यानी अगर कोई व्यक्ति दिल में नमाज़ पढ़ने की नीयत करे, तो यह काफ़ी है, ज़ुबान से इसे बोलना ज़रूरी नहीं।। इसलिए नमाज़ में Namaz ki Niyat का होना बहुत अहम है।

    सहीह मुस्लिम की हदीस में है की:
    "जब तुम नमाज़ के लिए खड़े होते हो, तो दिल में यह इरादा करो कि तुम कौन सी नमाज़ पढ़ रहे हो।"(सहीह मुस्लिम)
    इस हदीस से यह पता चलता है है कि नमाज़ की शुरुआत से पहले इंसान के दिल में यह इरादा होना चाहिए कि वह कौन सी नमाज़ (फर्ज़, नफ़्ल, वित्र आदि) पढ़ रहा है।

    नियत के मुताबिक़ ही फल मिलेगा

    इसलिये आवश्यक है कि हम अपने समस्त (जाइज़) कामों में (सब से) पहले इख़लास के साथ निय्यत कर लिया करें (क्योंकि जैसी निय्यत होगी वैसा ही फल मिलेगा। हजरत अबू हुरैरा रज़ि० रिवायत करते हैं कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
    "एक शहीद, अल्लाह के सामने क़ियामत के दिन लाया जाएगा, अल्लाह उस से पूछेगा कि तू ने क्या अमल किया? वह कहेगा कि में तेरी राह में लड़ कर शहीद हुआ। अल्लाह फ़रमाएगा: "तू झूठा है, बल्कि तू इस लिये लड़ा कि तुझे बहादुर कहा जाये" पस तहक़ीक़ कहा गया (यानी तेरी निय्यत दुनिया में पूरी हो गयी। अब मुझ से क्या चाहता है) फिर मुंह के बल घसीट कर आग में डाल दिया जाएगा।
    इसी प्रकार एक आलिम जिस ने इल्म को चर्चा की निय्यत से पढ़ा और पढ़ाया था। अल्लाह के सामने पेश हो कर जहन्नम में झोंक दिया जायेगा। फिर एक नाम के उद्देश्य से सख़ावत (दान) करने वाले मालदार का भी यही अन्जाम होगा
    ।"
    [मूस्लिम-किताबुल इमारति, हदीस न० 1905] इस से मालूम हुआ कि दिलों के राज़ (भेद) केवल अल्लाह ही जानता है और उसी के हाथ में हर नेक और बद का आख़िरत में अन्जाम है।

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    ज़ुबान से नियत का अदा करना

    ज़ुबान से Namaz ki Niyat के अल्फ़ाज़ अदा करना किसी भी हदीस या सहाबी के अमल से नही मिलता है ! जो नियत के कलिमात हमारे यहां पाए जाते हैं वो बनावटी हैं, बिदअत हैं !
    वुज़ू करते समय दिल में यह निय्यत करें कि अल्लाह के सामने (नमाज़ में) हाज़िर होने के लिये पाकी (वज़ू) करने लगा हूं और फिर जब नमाज़ पढ़ने लगें तो दिल में यह इरादा और निय्यत करें कि केवल अपने अल्लाह ही को ख़ुश रखने के लिये उस का हुक्म बजा लाता हूं।

    निय्यत चूंकि दिल से संबन्ध रखती है इसलिये ज़बान से अदा करने की ज़रूरत नहीं। और Namaz ki Niyat का ज़बान से अदा करना अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत और सहाबा रज़ि० के अमल से साबित नहीं है।

    अपने दिल में किसी काम की निय्यत करना और ज़रूरत के समय किसी को अपनी निय्यत से आगाह करना जाइज़ बात है। मगर नमाज़ से पहले निय्यत पढ़ना अक़्ल, नक़्ल और शब्द कोष (लुग़त) तीनों के ख़िलाफ़ है।

    (1) अक़्ल के ख़िलाफ़ इसलिये है कि बहुत सारे काम ऐसे हैं जिन्हें शुरु करते समय हम ज़बान से निय्यत नहीं पढ़ते, क्योंकि हमारे दिल में उन्हें करने की निय्यत और इरादा मौजूद होता है जैसे, ज़कात देने लगते हैं तो कभी नहीं पढ़ते कि "मैं ज़कात देने लगा हूं।" तो क्या नमाज़ ही एक ऐसा काम है जिस के शुरू में उस की निय्यत पढ़ना अनिवार्य हो गया है? नमाज़ की निय्यत तो उसी समय हो जाती है जब आदमी अज़ान सुन कर मस्जिद की तरफ़ चल पड़ता है और उसी निय्यत की वजह से उसे हर क़दम पर नेकियां मिलती हैं, इसलिये नमाज़ शुरू करते समय जो कुछ पढ़ा जाता है वह निय्यत नहीं, बिदअत है।
    (2) नक़्ल के ख़िलाफ़ इसलिये है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और सहाबा रज़ि० पाबन्दी से नमाज़ें पढ़ा करते थे और अगर वह अपनी नमाज़ों से पहले "निय्यत" पढ़ना चाहते तो ऐसा कर सकते थे, उन के लिये कोई रुकावट नही थी, लेकिन उन में से कभी किसी ने नमाज़ से पहले आजकल की प्रचलित निय्यत नहीं पढ़ी। इस के ख़िलाफ़ वह हमेशा अपनी नमाज़ों का आरम्भ तक्बीर तहरीमा (अल्लाहु अक्बर) से करते रहे। इस से साबित हुआ कि नमाज़ से पहले निय्यत पढ़ना बिदअत है।
    (3) लुग़त के इसलिये ख़िलाफ़ है कि निय्यत, अरबी भाषा का शब्द है। अरबी में इस का अर्थ "इरादा" है, और इरादा दिल से किया जाता है ज़बान से नहीं। बिल्कुल उसी तरह जैसे देखा आंख से जाता है पांव से नहीं। दूसरे शब्दों में निय्यत दिल से की जाती है, ज़बान से पढ़ी नहीं जाती।
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    Conclusion:

             कुछ लोग रोज़ा रखने की दुआ, हज्ज के तलबिया और निकाह में ईजाब व क़ुबूल से नमाज़ वाली राइज निय्यत करने की कोशिश करते हैं। इस बारे में कहना यह है कि रोज़े रखने की दुआ वाली हदीस ज़ईफ़ है, इसलिये हुज्जत और दलील नहीं है। हज्ज के लिये तलबिया सहीह हदीसों से साबित है, इसलिये नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पैरवी में उसे कहना ज़रूरी है। मगर नमाज़ वाली प्रचलित निय्यत किसी हदीस में नहीं है। रह गया निकाह में ईजाब और क़ुबूल का मस्अला, तो चुंकि निकाह का संबन्ध बन्दों के हुक़ूक़ से भी है और बन्दों के हुक़ूक़ में महज़ निय्यत से नहीं बल्कि इक़रार, तहरीर और गवाही से मामलात ते पाते हैं, जबकि नमाज़ में तो बन्दा अपने रब के सामने खड़ा होता है जो तमाम निय्यतों को अच्छी तरह जानने वाला है, फिर वहां निय्यत पढ़ने की क्या तुक है इसलिये मुसलमानों से अनुरोध है कि वह इस बिदअत से नजात पाएं और सुन्नत के मुताबिक़ नमाज़ शुरू कर के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रेम और मुहब्बत का सबूत दें।
    इमाम इब्ने तैमिया रह० फ़रमाते हैं कि अल्फ़ाज़ से निय्यत करना मुस्लिम उलमा में से किसी के नज़दीक भी सुन्नत नहीं है। नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, आप के ख़ुल्फ़ा-ए-राशिदीन और दीगर सहाबा रज़ि० और न ही इस उम्मत के सल्फ़ (बुज़ुर्गों) और इमामों में से किसी ने अल्फाज़ से Namaz ki Niyat की। इबादत में जैसे, वुज़ू, स्नान, नमाज़, रोज़ा और ज़कात वग़ैरह में जो निय्यत वाजिब है, तमाम इमामों के नज़दीक बिला इख़्तिलाफ़ उस का स्थान दिल है (अल् फ़तावा अल् कुब्रा) इमाम इब्ने हुमाम और इब्ने क़य्यिम भी इस को बिदअत कहते हैं।

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    نماز میں نیت کرنے کی اہمیت اور اس کا صحیح طریقہ

    نماز دین اسلام کا ایک اہم رکن ہے، اور اس کی قبولیت کے لیے نیت بنیادی شرط ہے۔ نیت سے مراد دل میں یہ ارادہ کرنا ہوتا ہے کہ ہم کون سی عبادت انجام دے رہے ہیں اور کس مقصد کے تحت ادا کر رہے ہیں۔ نماز کی نیت سے متعلق کئی سوالات پیدا ہوتے ہیں، جیسے کیا نیت کا زبان سے کہنا ضروری ہے؟ نیت کیسے کی جائے؟ اس مضمون میں ہم ان سوالات کا جائزہ لیں گے اور دلیل کے ساتھ اس بات کو سمجھنے کی کوشش کریں گے کہ نماز میں نیت کس طرح کی جائے۔

    نیت کی تعریف

    فقہاء کے مطابق نیت کا مطلب ہے: "دل میں کسی کام کو انجام دینے کا پختہ ارادہ کرنا"۔ نیت کا اصل مقام دل ہے اور اس کو زبان سے ادا کرنا ضروری نہیں۔ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا:

    "اعمال کا دارومدار نیتوں پر ہے، اور ہر شخص کو وہی ملے گا جس کی اس نے نیت کی۔"
    (صحیح بخاری: 1)
    یہ حدیث اس بات کی واضح دلیل ہے کہ ہر عمل، بشمول نماز، نیت پر منحصر ہے۔ یعنی اگر کوئی شخص نماز کی نیت دل میں کرے تو یہ کافی ہے، زبان سے اس کا اعلان کرنا ضروری نہیں۔

    کیا نیت زبان سے کرنا ضروری ہے؟

    بعض لوگ نماز کی نیت کو زبان سے ادا کرتے ہیں اور اسے ضروری سمجھتے ہیں، لیکن یہ خیال صحیح نہیں ہے۔ فقہاء کی اکثریت اس بات پر متفق ہے کہ نیت دل سے کی جاتی ہے اور زبان سے ادا کرنا بدعت ہے۔ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم اور صحابہ کرام سے یہ ثابت نہیں کہ انہوں نے نماز کی نیت کو زبان سے ادا کیا ہو۔

    نیت کا صحیح طریقہ

    نماز کی نیت کا صحیح طریقہ یہ ہے کہ دل میں ارادہ کر لیا جائے کہ کون سی نماز ادا کی جا رہی ہے، مثلاً فجر، ظہر، یا عصر کی نماز، اور یہ نماز کتنی رکعتوں کی ہے، جیسے دو رکعت یا چار رکعت۔ نیت کو دل میں کرنا کافی ہے اور اس کو زبان سے دہرانا غیر ضروری ہے۔

    نیت کی اہمیت

    نیت کا نماز میں اہم کردار ہے کیونکہ اللہ تعالیٰ ہر شخص کے دل کے حال کو جانتا ہے۔ نیت کی بنیاد پر ہی انسان کے اعمال کا محاسبہ کیا جاتا ہے۔ اگر نیت خالص اور اللہ کی رضا کے لیے ہو تو عمل بھی قبول ہوتا ہے، اور اگر نیت میں کوئی دنیوی فائدہ شامل ہو تو وہ عمل قبول نہیں کیا جاتا۔ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا:

    "قیامت کے دن تین قسم کے لوگوں کو اللہ تعالیٰ سب سے پہلے بلائے گا: ایک عالم، ایک شہید، اور ایک سخی۔ اللہ تعالیٰ ہر ایک سے پوچھے گا کہ تم نے یہ اعمال کیوں کیے؟ وہ اپنے اعمال گنائیں گے، لیکن اللہ تعالیٰ فرمائے گا کہ تم نے یہ کام دنیا کے لیے کیے، لہٰذا تمہارا کوئی اجر نہیں۔"
    (صحیح مسلم: 1905)
    یہ حدیث نیت کی خلوصیت کی اہمیت کو بیان کرتی ہے کہ صرف وہ اعمال قبول ہوں گے جو اللہ کی رضا کے لیے کیے گئے ہوں۔

    نیت کے مسائل

    کیا نیت کے بغیر نماز ہوتی ہے؟
    نیت کے بغیر نماز نہیں ہوتی کیونکہ نیت عبادت کی بنیادی شرط ہے۔
    کیا زبان سے نیت پڑھنا بدعت ہے؟
    جی ہاں، نیت کو زبان سے ادا کرنا بدعت ہے کیونکہ یہ عمل نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم اور صحابہ کرام سے ثابت نہیں۔

    کیا نیت میں نماز کا وقت اور تعداد شامل کرنا ضروری ہے؟
    جی ہاں، نیت میں نماز کا وقت اور رکعتوں کی تعداد شامل ہونا ضروری ہے تاکہ یہ معلوم ہو کہ آپ کون سی نماز ادا کر رہے ہیں۔

    خلاصہ

     Namaz ki Niyat دل سے کی جاتی ہے اور زبان سے اس کا اعلان کرنا ضروری نہیں۔ نیت دل کا ایک عمل ہے اور اس کا تعلق صرف اللہ تعالیٰ کے ساتھ ہے۔ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم کی سنت اور صحابہ کرام کے عمل سے ثابت ہے کہ نیت دل میں کی جاتی ہے۔ زبان سے نیت کا ادا کرنا بدعت ہے اور اس سے بچنا ضروری ہے۔

    نیت کی خالصیت اللہ تعالیٰ کی رضا کے لیے ہر عمل کا بنیادی جزو ہے۔ ہمیں اپنی نماز اور تمام عبادات میں نیت کو خالص رکھنا چاہیے تاکہ ہمارے اعمال قبول ہوں اور ہمیں آخرت میں اجر ملے۔



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    FAQs:

    1. Namaz ki Niyat क्या है ?
    नियत का मतलब दिल में यह पक्का इरादा करना है कि आप कौन सी नमाज़ पढ़ रहे हैं और किस मकसद से पढ़ रहे हैं। इसका मतलब है कि नमाज़ से पहले इंसान को मालूम होना चाहिए कि वह किस इबादत की अदायगी कर रहा है (फर्ज़, सुन्नत, नफ्ल आदि)।

    2. क्या नियत ज़बान से बोलना ज़रूरी है?
    नहीं, नियत को ज़बान से बोलना ज़रूरी नहीं है। नियत का असल मकसद दिल में पक्का इरादा करना है। अगर दिल में यह ठान लिया कि कौन सी नमाज़ पढ़नी है, तो यह काफी है। कुछ लोग ज़बान से भी नियत बोलते हैं, लेकिन यह बिदअत है।

    3. क्या नियत के बिना नमाज़ होती है?
    नहीं, नियत के बिना नमाज़ नहीं होती। हदीस में आता है: "अमाल का दारोमदार नियतों पर है..." (सहीह बुखारी)। इसलिए नमाज़ के लिए नियत जरूरी है। यह नमाज़ की शर्तों में से एक है।

    4. नियत कब करनी चाहिए?
    नियत नमाज़ शुरू करने से पहले करनी चाहिए, यानी "तकबीर-ए-तहरीमा" (अल्लाहु अकबर) कहने से पहले। नमाज़ शुरू करने से पहले यह इरादा होना चाहिए कि आप किस नमाज़ को अदा कर रहे हैं।

    5. क्या नियत फर्ज़, सुन्नत और नफ्ल नमाज़ के लिए अलग-अलग होती है?
    जी हाँ, नियत में यह स्पष्ट होना चाहिए कि आप किस तरह की नमाज़ अदा कर रहे हैं, जैसे कि फर्ज़, सुन्नत, या नफ्ल। उदाहरण के लिए, अगर आप ज़ुहर की फर्ज़ नमाज़ पढ़ रहे हैं, तो नियत यह होनी चाहिए कि आप ज़ुहर की चार रकअत फर्ज़ नमाज़ अदा कर रहे हैं।

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