Mushrikon(Kaafiron)ko Jahan Paao Qatal karo
सूरह अत-तौबा की एक आयत है " Mushrikon(Kaafiron)ko Jahan Paao Qatal karo " इस आयत से मुतल्लिक एक बहुत बड़ी गलतफहमी हमारे गैर मुस्लिमों के यहां पाई जाती है।इस की ख़ास वजह यह है कि इस आयत को पूरे संदर्भ के बिना पढ़ा जाता है, जिससे ऐसा लगता है कि इस्लाम सभी गैर-मुसलमानों के खिलाफ हिंसा या कत्ल का आदेश देता है।
जबकि असल में यह आयत सिर्फ उन लोगों के लिए है जो मुसलमानों से युद्ध कर रहे थे।
इस आयत की सही समझ के लिए हमें पूरा संदर्भ, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, कुरान की अन्य आयतों और हदीसों को ध्यान में रखना होगा।
आयत का अनुवाद और संदर्भ
आयत का अनुवाद:
फिर जब हुरमत वाले महीने बीत जाएँ तो मुशरिकों को जहाँ पाओ, क़त्ल करो, उन्हें पकड़ो, घेरो और हर घात में उन पर घात लगाओ। लेकिन अगर वे तौबा कर लें, नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें, तो उनका रास्ता छोड़ दो। बेशक अल्लाह बड़ा बख़्शने वाला, रहमत करने वाला है।"सूरह अत-तौबा 9:5)
Note: अगर इस आयत से मुराद यह लिया जाए की सभी ग़ैर मुस्लिमों को मारा जाए या क़त्ल किया जाए तो थोड़ा सा आगे जा कर इसके बाद वाली आयत को पढ़ लीजिए आप की ग़लत फ़हमी दूर हो जाएगी! और यह वो आयत है, आयत नंबर:6
और अगर कोई मुशरिक तुमसे पनाह मांगे, तो उसे पनाह दे दो, ताकि वह अल्लाह का कलाम सुन सके। फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान तक पहुँचा दो। यह इसलिए कि वे लोग नादान हैं।"(सूरह अत-तौबा 9:6)
➡️ अब यह आयत Mushrikon(Kaafiron)ko Jahan Paao Qatal karo स्पष्ट करता है कि यह आदेश हर गैर-मुसलमान के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों के लिए है जिन्होंने मुसलमानों के साथ युद्ध छेड़ा था।और सोचने वाली बात है की अगर दो लोगों के बीच झगड़ा हो जाए और समझाने और सुलह करने के बाद भी सामने वाला बार बार मारने और लड़ने के लिए आए तो क्या कोई ऐसे ही बैठा रहेगा और उस से बिना लड़े अपनी जान दे देगा ऐसा तो हो ही नही सकता !
ठीक इसी तरह जब मक्का के मुशरिकों ने मुसलमानों के साथ की गई संधियों को तोड़ दिया और बार-बार इस्लाम के खिलाफ साजिशें कीं तब यह आयत नाजिल हुई!
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यह आयत एक खास ऐतिहासिक मौके पर 9 हिजरी (631 CE) में तब उतरी, जब मक्का के मुशरिकों (मूर्तिपूजकों) ने मुसलमानों के साथ की गई संधियों को तोड़ दिया और बार-बार इस्लाम के खिलाफ साजिशें कीं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (शाने नुज़ूल)/संदर्भ
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Mushrikon(Kaafiron)ko Jahan Paao Qatal karo |
628 ई. में हज़रत मुहम्मद (ﷺ) और मक्का के मुशरिकों के बीच हुदैबिया संधि हुई थी, जिसमें दस साल तक युद्ध न करने का समझौता हुआ।Note: अब यहां भी गौर करने वाली बात है की अगर मुस्लिम कौम लड़ने झगड़ने वाली होती तो मुश्रिकों के संधि तोड़ने और हमला करने के बावजूद भी मुसलमानों की तरफ़ से 4 महीने की मोहलत दी गई फ़िर भी वे युद्ध से न माने तब उनके खिलाफ युद्ध किया गया! जिसका बयान आयत 2,3 में आया है !
लेकिन कुछ ही समय बाद मुशरिकों ने इस संधि को तोड़ दिया और मुसलमानों पर हमला किया।
इसके बाद अल्लाह ने इस आयत में मुशरिकों को चेतावनी दी कि उनके पास चार महीने की मोहलत है (9:2-3), उसके बाद अगर वे इस्लाम के खिलाफ युद्ध करते रहें तो उनका मुकाबला किया जाएगा।
किसी ने क्या खूब कहा है :
वो कत्ल भी करें तो चर्चा नहीं होतीहम आह भी भरें तो हो जाते हैं बदनाम
क्या यह आयत सभी गैर-मुसलमानों के लिए है?
नहीं, यह सिर्फ उन मुशरिकों के लिए थी जिन्होंने मुसलमानों से संधि तोड़ी और बार-बार जंग की।
क्यों?
इसी सूरह (9:4) में कहा गया है कि जिन मुशरिकों ने संधि नहीं तोड़ी, उन्हें कुछ नहीं कहा जाएगा।
(9:6) में यह भी कहा गया कि अगर कोई मुशरिक पनाह माँगे, तो उसे सुरक्षा दी जाए और फिर उसे सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया जाए।
इसलिए यह कोई आम हुक्म नहीं, बल्कि सिर्फ उन दुश्मन समूहों के लिए था, जो मुसलमानों के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए थे।
इस्लाम शांति पसंद करता है और बिना वजह किसी को नुकसान पहुँचाने की अनुमति नहीं देता।
अगर कोई गैर-मुस्लिम शांति से रह रहा है, तो उसके खिलाफ जंग हराम है।
➡️ यह आदेश आम गैर-मुसलमानों के लिए नहीं था, बल्कि केवल उन मुशरिकों के लिए था जिन्होंने बार-बार युद्ध छेड़ा था।
कुरान की अन्य आयतें जो इस आयत की व्याख्या करती हैं
(1) जबरदस्ती धर्म परिवर्तन की मनाही
- "दीन में कोई जबरदस्ती नहीं।" (सूरह अल-बक़राह 2:256)
- ➡️ यह दिखाता है कि इस आयत का उद्देश्य किसी को जबरदस्ती मुसलमान बनाना नहीं था।
(2) शांति का आदेश
- "और अगर वे (दुश्मन) झुक जाएँ और सुलह चाहें, तो तुम भी झुक जाओ और अल्लाह पर भरोसा करो।" (सूरह अल-अंफाल 8:61)
- ➡️ अगर दुश्मन जंग छोड़ दे तो मुसलमानों को भी शांति करनी चाहिए।
(3) निर्दोषों की हत्या की मनाही
- "जो कोई किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या करता है, तो मानो उसने पूरी मानवता की हत्या कर दी।" (सूरह अल-माइदा 5:32)
- ➡️ इस आयत से साबित होता है कि निर्दोषों को मारने का आदेश नहीं दिया गया।
Note: जब इस आयत में किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या करना पूरी मानवता की हत्या करने के बराबर है तो भला इस्लाम ये कैसे इजाज़त देगा कि इतने लोगों को मारो, क़त्ल करो ! ज़रूर इसकी ख़ास वजह होगी ! और वो वजह ऊपर आयत में बता दिया गया है!
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इस्लाम में युद्ध के नियम
- इस्लाम में युद्ध सिर्फ आत्मरक्षा में और जरूरी हालात में ही जायज है।
- बेगुनाहों, औरतों, बच्चों और बुजुर्गों को नुकसान नहीं पहुँचाया जा सकता।
- जो लोग संधि में ईमानदार हैं, उनके खिलाफ कोई जंग नहीं।
- अगर दुश्मन संधि करना चाहे तो उसे स्वीकार करना चाहिए (8:61)।
हदीस से व्याख्या
(1) युद्ध में निर्दोषों की हत्या हराम है
हज़रत अबू बक्र (रज़ि.) ने एक जंग के लिए रवाना होने वाले मुस्लिम फौजियों से कहा:औरतों, बच्चों, बूढ़ों और इबादत करने वालों को मत मारो। पेड़ों को मत काटो, खेती को मत जलाओ।"
(अबू दाऊद: 2613)
➡️ इससे पता चलता है कि इस्लाम में युद्ध केवल आत्मरक्षा के लिए है, निर्दोषों को मारने के लिए नहीं।
(2) शरण मांगने वालों को सुरक्षा दी जाए
रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:"जो किसी गैर-मुस्लिम को अम्मान (सुरक्षा) दे, उसे कत्ल करना हराम है।" (सुनन अबी दाऊद: 2760)➡️ यह सूरह अत-तौबा (9:6) की पुष्टि करता है कि अगर कोई मुशरिक पनाह मांगे, तो उसे सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया जाए।
इस आयत की गलतफहमियों का जवाब
➡️ इसलिए यह आयत Mushrikon(Kaafiron)ko Jahan Paao Qatal karo गलतफहमी का शिकार हुई है। इसे सही संदर्भ में समझना जरूरी है।गलतफहमी:यह आदेश सभी गैर-मुसलमानों को मारने के लिए है।
हकीकत:यह सिर्फ उन मुशरिकों के लिए था जिन्होंने मुसलमानों से युद्ध किया और संधि तोड़ी। (सूरह अत-तौबा 9:4-5)
गलतफहमी:इस्लाम गैर-मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा सिखाता है।
हकीकत:कुरान में साफ कहा गया है: "दीन में कोई जबरदस्ती नहीं।" (सूरह अल-बक़राह 2:256) और "अगर वे सुलह चाहें, तो तुम भी झुक जाओ।" (सूरह अल-अंफाल 8:61)
गलतफहमी:इस्लाम अमन (शांति) का धर्म नहीं है।
हकीकत:इस्लाम का नाम ही "सलामती" से निकला है, और कुरान में शांति को प्राथमिकता दी गई है।
गलतफहमी:मुसलमानों को हर जगह जिहाद करने का आदेश है।
हकीकत:जिहाद का असली मतलब आत्मरक्षा और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष है, न कि अकारण युद्ध। कुरान में कहा गया है: "जिन पर युद्ध थोपा गया, उन्हें इजाजत दी जाती है क्योंकि उन पर जुल्म हुआ है।" (सूरह अल-हज 22:39-40)
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Conclusion:
Mushrikon(Kaafiron)ko Jahan Paao Qatal karo अब आप को इस आयत का सही मतलब समझ में आ गया होगा!
- यह आयत आम गैर-मुसलमानों के खिलाफ नहीं है, बल्कि उन लोगों के लिए थी जिन्होंने मुसलमानों के खिलाफ युद्ध छेड़ा था।
- सूरह अत-तौबा (9:5) का आदेश केवल उन्हीं मुशरिकों के लिए था जिन्होंने मुसलमानों पर हमले किए और संधियां तोड़ीं।
- आम गैर-मुसलमानों को मारने की अनुमति नहीं है।
- कुरान और हदीस में बार-बार अमन, इन्साफ और निर्दोषों की हिफ़ाज़त की तालीम दी गई है।
- इस्लाम में जबरन धर्म परिवर्तन हराम है।
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FAQs:
1.सवाल: क्या सूरह अत-तौबा (9:5) का आदेश सभी गैर-मुसलमानों के लिए है?
नहीं। यह आदेश सिर्फ उन मुशरिकों के लिए था जिन्होंने मुसलमानों से युद्ध किया और संधि तोड़ी। कुरान (9:4) में साफ कहा गया है कि जो संधि के पाबंद हैं, उन्हें नुकसान नहीं पहुँचाया जाएगा।
2.सवाल: अगर यह आदेश हर गैर-मुसलमान के लिए नहीं है, तो फिर "जहाँ पाओ, मार डालो" क्यों कहा गया?
यह एक युद्धकालीन आदेश था, जो उन मुशरिकों के खिलाफ था जिन्होंने मुसलमानों से बार-बार जंग की और संधियों को तोड़ा। उसी सूरह (9:6) में कहा गया कि अगर कोई मुशरिक पनाह माँगे तो उसे सुरक्षा दी जाए।
3.सवाल: क्या इस्लाम में जबरदस्ती किसी को मुसलमान बनाया जा सकता है?
नहीं। कुरान (2:256) में साफ कहा गया है: "दीन में कोई जबरदस्ती नहीं।" इस्लाम में कोई भी व्यक्ति अपनी मर्जी से ही ईमान ला सकता है।
4.सवाल: क्या मुसलमानों को हर जगह जिहाद करने का आदेश है?
नहीं। जिहाद का असल मतलब आत्मरक्षा और अन्याय के खिलाफ संघर्ष है, न कि अकारण युद्ध। कुरान (22:39-40) में कहा गया है कि "जिन पर जुल्म हुआ, उन्हें युद्ध की अनुमति दी जाती है।"
5.सवाल: अगर कोई गैर-मुसलमान शांति से रहना चाहता है, तो इस्लाम उसे क्या हुक्म देता है?
कुरान (8:61) कहता है: "अगर वे सुलह चाहें, तो तुम भी सुलह कर लो और अल्लाह पर भरोसा करो।" यानी इस्लाम शांति को प्राथमिकता देता है।
6.सवाल: क्या इस आयत का गलत इस्तेमाल करके आतंकवादी इसे हिंसा के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं?
हाँ, लेकिन यह पूरी तरह गलत और नाजायज है। इस आयत का संदर्भ विशेष युद्ध परिस्थितियों में था, न कि आम गैर-मुसलमानों के खिलाफ। इस्लाम निर्दोषों की हत्या को पूरी मानवता की हत्या के बराबर मानता है (कुरान 5:32)।
7.सवाल: इस्लाम में युद्ध के क्या नियम हैं?
हदीस और इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार:
औरतों, बच्चों, बूढ़ों और इबादत करने वालों को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए। (अबू दाऊद: 2613)
जो संधि के पाबंद हैं, उनके खिलाफ युद्ध नहीं करना चाहिए। (कुरान 9:4)
अगर दुश्मन शांति चाहता है, तो उसे स्वीकार करना चाहिए। (कुरान 8:61)
8.सवाल: तो क्या इस्लाम एक अमन पसंद मज़हब है?
बिल्कुल! इस्लाम का नाम ही "सलामती" से निकला है, और यह शांति, न्याय और मानवता की रक्षा का पैगाम देता है।
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